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Wednesday, August 28, 2024

NCERT SANSKRIT BHASHWATI CLASS -11 CHAPTER- 6 BHAVYAH SATYAGRAHASHRAMAH

 


१.   साबरमती नदी के तटपर सत्याग्रह आश्रम है। अपने अनुयायियों के साथ(मिलकर) महात्मा ने वहाँ सदन का स्थापना किया।

२.   यह सत्य प्रमाण है कि मन, वाक्य, काय तथा कर्म से(द्वारा) उस पवित्र निवासस्थान में वो आश्रम है, वह यथार्थ है।

३.   अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचारी, धन संचय न करने का स्वभाव, स्वदेशी वस्तुओं के प्रति निष्ठा भाव, भय रहित, रुचि-स्वाद पर नियन्त्रण रखना

४.   और हरिजनों का उद्धार - यह नौ व्रत  भारतवर्ष के विकाश के लिए आश्रम के महात्मा के हैं।

५.   निर्मम, सर्वदा सत्त्वगुण से युक्त, कम् भोजन करने वाला, स्मितमुख, उत्तम स्त्री युक्त, शिशुप्रेमी, आश्रमवासिओं के पिता स्वरूप हैं।

६.  अपने बन्धुओं के कष्ट को ध्यान कर उनके हित के लिए (उनके सम्मुख) उपस्थित होते हैं। जैसे बोधि वृक्ष के नीचे मुनिश्रेष्ठ बुद्ध विराजमान होते हैं।

७.   साक्षातरूप से ये सत्य का प्रदीप हैं। स्वबन्धुओं के हृदय से मोहजनित अन्धकार दूरकर शोभायमान होते हैं।

८.   सभी बलों से भी बलवान् सत्य है। क्योंकि सत्यरहित बलवान् व्यक्ति से बलहीन सत्यवान् जन अधिक कल्याणकारी होता है।

९. उस(सत्य)को जो प्रजा अथवा राज्यशासक धर्म के साथ आचरण करते हैं उनका विकाश होता है; किन्तु दूसरों का विनाश निश्चय है। 

१०.   यह 'गान्धीआख्याति' वहाँ स्थित अन्य अनुयायीजनों को सहवासिओं ने कहते थे।

    महात्मा कहते हैं  -

११.  अधर्म को देखकर भी जो समावस्था (/प्रतिबन्धु) नहीं चाहता है और जो सत्य में होते हुए भी  भय  के कारण (वह) प्रतिपादन योग्य नहीं  है।

१२.   और  स्वार्थ नष्ट होने के भय से जिस मिथ्या जीवनको वो रक्षा करते हैं, शक्तिहीन उन दोनों का जीवन  निष्फल है।

१४.  वो निश्चित रूप से भीरू है जो मन से पलायन किया गया हिंसा को करता है और स्वयं के मृत्यु के डर से  आत्महिंसा करता है। 

१५.  इसिलिए मेरे द्वारा सत्याग्रहाश्रम नाम दिया गया है। सत्यानुयायिओं से युक्त यह मेरे सज्जनों की वस्ती      है। 
१६.  सत्यादि धर्मों के अमोघ अद्भुत बल को वर्णन कर व्रतों  को अनेकों गुरुओं को ग्रहण करवाया। 
१७.  सत्यसार उस आश्रम में (दूसरों के द्वारा) अपराध किया जाने पर भी सभी दोषों को स्वीकार कर उपवासों से तपस्या  करता है। 
१८.  आश्रम से बाहर अन्यत्र लोगों के झगड़े में भी उसको स्वयं के ही कारण मान कर वो कलङ्क से पीडीत होता      है।  
१९.  सभी प्राणियों में  अपनी जैसे देखने वाले परवशीभूत गुणों के द्वारा इनके पदानुयायी हजारों में बढ़ गए।
२०.   सत्यादि  नौ व्रतों को   सर्वदा आचरण करेंगे - यह उत्साही जनों के द्वारा निश्चय किया गया। 

 अभ्यासः

१.प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया देयानि -

क)  अयं पाठः 'सत्याग्रहगीता' इति ग्रन्थात् सङ्कलितः।

ख) महात्मा ( गाँधी ) सत्याग्रहाश्रमं सबरमत्याः ( नद्याः ) तीरे स्थापयामास।                                                    ग)  निर्ममः नित्यसत्वस्थः मिताशी सुस्मिताननः सुकलत्रः शिशुप्रेमी तथा पिता इव आश्रमवासिनाम् कृते महात्मा आसीत्। 

घ)  अस्मिन् पाठे महात्मनः तुलना मुनिना बुद्धेन सह कृता।
ङ)  ये प्रजा वा राज्यशासकाः सत्यं धर्मेण चरन्ति, तेषां वृद्धिर्जायते।
च)  सत्याग्रहाश्रमः इति नाम महात्मना अनुयात्रिकै सह भारतस्य उत्कर्षसिद्ध्यर्थं दतम्।
छ) श्रीमती क्षमाराव अस्य पाठस्य रचयित्री। 
ज)  अहिंसा सत्यमस्तेयं व्रह्मचर्यापरिग्रहौ स्वदेशवस्तुनिष्ठा निर्भीतीः रुचिसंयमः अन्त्यजानां समुद्धारः इति महात्मनः एतानि नवानि व्रतानि आसन्। 
झ)   महात्मा अन्येषां दोषैः उपवासमकरोत्।
ञ) सर्वभूतानि आत्मवत् पश्यतः गान्धिनः गुणैः जनाः तस्य पदानुगाः जाताः।
२.
क)  अन्वयः - अहिंसा सत्यं अस्तेयं व्रह्मचर्य अपरिग्रहः स्वदेशवस्तुनिष्ठा निर्भीतीः रुचिसंयमः च। 
 श्लोकार्थः - अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, व्रह्मचारी, धन संचय न करना , स्वदेशी वस्तुओं के प्रति निष्ठावान, भयरहित और स्वाद पर नियंत्रण। 
 ख)  अन्वयः - अयं साक्षात् सत्यप्रदीपः। स्वबन्धूनां हृदयात्  मोहजं तमः अपाकुर्वन् अखिलभारते दीप्यते। 
 श्लोकार्थः  -  ये साक्षात् रूप से सत्य के प्रदीप हैं। अपने बन्धूओं के हृदय से मोहजनित अन्धकार  दूर कर समग्र भारत में शोभा पाते हैं। 
 ग)  अन्वयः - यः अधर्मं अपि दृष्ट्वा प्रतिबन्धुं न वाञ्छति। यो च सत्ये सति अपि भीत्या तत् न प्रतिपद्यते। 
  श्लोकार्थः - जो अधर्म को भी देखकर समावस्था नहीं चाहता है। और  जो सच्चाई में रहते हुए भी भय के कारण उस(सत्य) को सम्मुखिन  नहीं  कर पाता है। 
३.  परिचयं दत -
   क)  समुद्धारः - सम् + उत् उपसर्ग धृ धातुः पुं. प्र. ए. व. 
ख)  प्रतिबन्धुं -  प्रति उपसर्ग बन्ध् धातुः तुमुन् प्रत्ययः 
ग)   समृद्धिः - सम् उपसर्गः ध् धातुः क्तिन् प्रत्ययः 
घ)   ध्यायन् - ध्यै धातुः शतृ प्रत्यय पुं. प्र. ए. व.
ङ)   दृष्ट्वा  -  दृश् धातुः क्त्वाच् प्रत्ययः (अव्ययः)
च)  समाश्रित्य - सम्+आ उपसर्गः श्रि धातुः ल्यप् प्रत्ययः
छ) दत्तम्   -  दा धातुः क्त प्रत्ययः पुं. ए. व.(कर्मवाच्ये विशेषणम्) 
ज) मत्वा  -  मन् धातुः क्त्वाच् प्रत्ययः (अव्ययः)
४.  सविग्रहं समासनाम लिखत -
  क) सत्याग्रहाश्रमम् - सत्याग्रहश्चासौ  आश्रश्चेति, तम्  - कर्मधारय समासः
 ख)  महात्मा - महान् च असौ आत्मा - कर्मधारय समासः
ग) व्रह्मचर्यापरिग्रहौ  -  व्रह्मचर्यश्च अपरिग्रहश्च -  द्वन्द्व समासः
 घ) सुकलत्रः - शोभनं कलत्रं यस्य सः - वहुव्रीहि समासः
 ङ) निष्फलम् - फलानां अभावः, तम् - अव्ययीभाव समासः
६.
   नवैतानि - नव + एतानि 
  मिताशी  - मित + आशी 
 मुनिर्बुद्धः - मुनिः + बुद्धः
  दीप्यतेऽखिलभारते  - दीप्यते + अखिलभारते
 सत्यपि - सति + अपि
 पितेव - पिता + इव
व्यवर्धन्त - वि + वर्धन्त 
सर्वदाप्याचरिष्यामः - सर्वदा + अपि +आचरिष्यामः




        

Sunday, August 11, 2024

NCERT SANSKRIT BHASHVATI CLASS 11 CHAPTER-5 SHUKASHAVAKODANTAH





         मध्यदेश की शोभा बढ़ाने वाली धरती की मेखला सदृश (विन्ध्य पर्वत पर लगा) विशाल 'विन्ध्य अरण्य'  है। और उसमें पम्पा नामक कमल का सरोवर है। उस (सरोवर) के पश्चिम तट पर बहुत पुराना शमी बृक्ष है। वहाँ एक कोटर में किसी भी तरह (या किसी प्रकार से) रहने वाले  पिता का मैं पुत्र के रूप में जन्म लिया। मेरे ही जन्म लेने की पीडा से मेरी माता की मृत्यु हो गई। किन्तु पिता पुत्र स्नेह के कारण शोक रोक कर मेरा रक्षणावेक्षण (या देखभाल) में लगगए। दूसरों के घोंसलों से गिरी हुई धानपौधों से चावलटुकडों को और तोतों के झूण्ड द्वारा  कतरे हुए फलों के टुकड़े लाकर मुझे दिए।  मेरा खाद्यावशेष को ही भोजन करते थे।
         परन्तु एकदिन सूर्योदय से पहले अचानक उस वन में शिकार सम्बन्धी कोलाहल ध्वनि उत्पन्न हुआ।
और उस ध्वनि को सुन कर शावक होने से काँपता हुआ मैं भय व्याकुल होकर पिता के पंखों के पुटक के भीतर चलागया । शिकार की ध्वनि से व्याकुल उस वन में शान्ति होने पर शीघ्र ही पिता के गोद से थोड़ा बाहर निकल कर कोटर में रह कर ही शिरवस्त्र फैला कर "यह क्या है" देखने का इच्छुक मैं गर्दन आगे बढ़ाते ही निकट में आते हुए शबरसैन्य को देखा। और उस(शवरसैन्य) के मध्य(बिच) में युवावस्था में उपस्थित शबरसेनापति को देखा।              मेरे मन में यह आया - "अरे इनका जीवन मोह से ग्रस्त है। शराव मांस आदि इनका आहार, शिकार इनका श्रम है, शास्त्र  सियारिनों का गरजना, पक्षीविषयक ज्ञान इनका प्रज्ञा(बुद्धि) है। जिस जंगल में रहते हैं उसका पूर्णरूप से जड़ सहित विनाश कर देते हैं। मैं ऐसा सोचते समय ही वो शबरसेनापति आकर उसी वृक्ष के नीचे छाया में सेवकों द्वारा लाए गये पत्तों के आसन पर बैठ गया। पानी पी कर और कमल का डंठल या रेशा खा कर श्रम दूर होने पर उठकर सभी सेनाओं केे साथ इच्छित दिशा को चलागया।

             परन्तु उनमें से एक बृद्धशबर उसी पेड़ के नीचे ही एक पल के लिए रुक गया । सेनापति के चले जाने पर जल्द ही चढ़ने की इच्छा से उस वृक्ष को जड से देखा। उस समय उसका उपस्थिति  भयभीत शुकदम्पतियों का प्राण से उडने जैसा ही था। निर्दयीजनों के लिए क्या ही दुष्कर है। क्योंकि वह उस वृक्ष को असावधानी से चढ़कर फल सदृश शुकशावकों को कोटरों से निकाल लिया। और प्राणहीन कर भूमि पर फेंक दिया।

               पिता भी विषादशून्य तथा आँसू के जल से भीगी हुई उस दृश्य को देखकर इधर उधर विखरे हुए पंखों को इकट्ठे कर मुझे ढक कर स्नेह परवश होते हुए मेरे रक्षा के लिए आकुल हो उठे। यह पाप भी क्रमशः अन्य शाखाओं से चलता  हुआ  मेरे कोटर द्वार में प्राप्त(पहुंचा) हुआ सर्प जैसे भयानक प्रसारित बाहु को वारवार चोंच से प्रहार करने से तथा कूजन करने से क्रुद्ध होकर पिता को प्राणहीन करदिया परन्तु मुझे छोटे होने पर किसी प्रकार से देख नहीं पाया। और मृत उनको धरती पर छोड़ दिया। मैं भी उनके पाँवों के मध्य गर्दन रखकर गोद के नीचेे निश्चल  रहकर हवा से एकत्रित सुखे पत्तों के ऊपर गिरा हुआ स्वयं को देखा। जब तक यह वृक्ष के अग्र भाग से अवतरण करता है, तब तक मैं मृत पिता के ऊपर से उठकर क्रूर जैसा स्नेहरस से अंजान भय से ही केवल आक्रान्त होता हुआ इधर उधर गिरता पडता निकटवर्ती तमालवृक्ष के मूलदेश में प्रवेश किया।

             पक्ष उत्पन्न न होने से वारवार मुख से गिरता हुआ मुस्किल से साँस लेता हुआ धूलिधूसरित होनेवाला घिसटता हुआ मेरे मन में उत्पन्न हुआ - इस जगत में सभी प्राणियों का जीवन से प्रियतर और कुछ नहीं है । पिता के इस प्रकार मृत्यु होने पर भी मैं जीना चाहता हूँ। मुझ जैसा अकरुण , अतिनिष्ठुर तथा अकृतज्ञ को धिक्। मेरा अन्तर(हृदय) निश्चत रूप से खराव है। पिता के द्वारा मेरे लिए जो किया गया वह मैं एकपद में भूल गया। (सभी प्रकार से/ )निस्सन्देह जीवन का आशा दुःखदायी हैैै। क्योंकि इस अवस्था में भी मुझे जल की अभिलाष(/ईच्छा) कष्ट देता है। दिवस का यह अवस्था अतिकष्ट दिखाई पडता है। धूप से तपी भूमि धूलवाली हो गई है।

            प्यास से शुखे हुए/ मुरझे हुए मेरे सभी अङ्ग थोडा चलने में भी समर्थ नहीं  हैं।( मैं) स्वयं शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे हृदय को कष्ट हो रहा हे। मेरे नेत्र अन्धकारता को प्राप्त हो रहे हैं॥ भाग्य निश्चय ही दुष्ट है,  मेरे  न चाहते हुए भी  मृत्यु आज हि संपन्न हो जाएगा। 

            मेरा ऐसे चिन्ता करते समय नहाने की इच्छा रखनेवाला हारित नामक जाबालि मुनि के पुत्र, मित्र और अन्य मुनिकुमारों के साथ उस रस्ते से उस पद्मसरोवर में पहुँचा। सज्जनों के मन(/ चित्त) प्रायशः स्वतःस्फूर्त मित्रतायुक्त तथा अतिदयालु(/ संवेदनशील) होते हैं। क्योंकि मेरे उस अवस्था/ दशा को देखकर वह मुझे सरोवर के किनारे ले गया। और स्वयं जलबिन्दु लाकर पिलाया। प्राणोदय होनेपर मुझे छाया में रखकर स्नानविधि किया। स्नानाभिषेक समाप्त होनेपर सभी मुनिकुमारों के समूह  से पीछा किया जाता हुआ मुझे लेकर (हारित ने) तपोवन चलागया।


         अभ्यासः

१.
   क)  मध्यदेशस्य अलङ्कारस्वरूपा भुवः मेखला इ़व विन्धयाटव्यां पम्पाभिधानं पद्मसरः आसीत्।
   ख) महाजीर्ण शाल्मलीबृक्षस्य एकस्मिन्कटोरे शुकः निवसति स्म।
   ग)  शबराणां जीवनं मोहप्रायम् वर्तते । 
   घ)   हारीतः जाबालिमुनेः सुतः आसीत्। 
   ङ) जीवनाशा सर्वथा खलीकरोति। 
   च) शुकस्य पिता शुककुलावदलितानि फलशकलानि तस्मै अदात्।
   छ) मृगयाध्वनिमाकर्ण्य शुकः पितुः पक्षपुटान्तरमविशत्।
   ज) शवरसेनापतिः प्रथमे  वयसि वर्त्तमानः आसीत्। 
   झ) अकरुणानाम्   दुष्करम्।
   ञ)  जरच्छवरः शुकस्य तातम् अपगतासुमकरोत्।

२.  पाठमाधृत्य बाणभट्टस्य गद्यशैल्याः वैशिष्ट्यानि लिखत।
उत्तरम्  -
                  बाणभट्ट अलङ्कृत-गद्यकाव्य युग के नायक हैं। उनके मत से विकट अक्षर बन्ध तथा अक्लिष्ट समास ही गद्य का आदर्श है  -
                
क) विकटाक्षरबन्धस्योदाहरणम्  -

                'शालिवल्लरीभ्यस्तण्डूलकणान्', 'मदुपभुक्तशेषमेवाकरोदशनम्', 'तमहमुपजातवेपथुरर्भकतया', 
'दिदृक्षुरभिमुखमापतच्छबरसैन्यमद्राक्षम्','भुक्तमृणालिकश्चोत्थायापगतश्रमः','मुहुर्मुहुर्दत्तचञ्चुप्रहारमुत्कूजन्तमाकृष्य','नातिदूरवर्तिनस्तमालपादपस्य',  'धिङ्मामकरुणमतिनिष्ठुरमकृतज्ञम्'।

ख)  अक्लिष्ट समासो कवेः गद्यशैल्याः अपरं वैशिष्ट्यं वर्तते । उदाहरणस्वरूपम् - 
             मध्यदेशालङ्कारभूता - मध्यश्च असौ देशः च - कर्मधारय समास
                                        तस्य अलङ्कारभूता   -  षष्ठी तत्पुरुष समास
            उपजातवेपथुः  -  उपजातः वेपथुः यस्य सः  -  बहुव्रीहि समासः

४.   अधोलिखितानां भावार्थं लिखत  -
   क)  'किमिव हि दुष्करमकरुणानाम्' । अर्थात् दयाहीन व्यक्ति के लिए क्या दुष्कर है। उक्त सूक्ति कवि  बाणभट्टविरचित "शुकशावकोदन्तः" पाठ से उद्धृत है।  पाठ में  एक बुद्ध शवर के द्वारा शुककुलों के प्रति किया गया अत्याचार के  सन्दर्भ में यह कथन है ।
       एकदिन सूर्योदय से पहले विन्ध्याटवी में शिकार करने के लिए शवरसैन्यों के साथ सेनापति पहुँचे।शिकार करने के बाद शाल्मली वृक्ष के नीचे श्रम/ क्लान्त(/थकावट) दूरकर उचित दिशा में चलेगए।परन्तु उनमें से एक
बृद्धशवर ने सेनापति के चले जाने पर उस वनस्पति को चढ़ने की इच्छा से पेड़ को नीचे से देखा। उस समय उसका उपस्थिति  भयभीत शुकदम्पतियों का प्राण से उडने जैसा ही था। निर्दयीजनों के लिए क्या ही दुष्कर है। क्योंकि वृद्धशवर ने असावधानी /लापरवाही से उस शाल्मलीवृक्ष को चढकर वृक्षकोटर से शुकशावकों को फलसदृश निर्दयतापूर्वक निकाला। और प्राणहीन कर भूमि पर  फेंक दिया। इसलिए कवि बाणभट्ट ने शुक के माध्यम से यह कहा है की निर्दयीजन के लिए क्या हि दुष्कर है। 
   ख)   नास्ति जीवितादन्यदभिमततरमिह जगति सर्वजन्तूनाम्।
   अर्थात् इस संसार में सभी प्राणिओं के जीवन से भिन्न प्रियतर और कुछ नहीं हैै। उपरोक्त उक्ति 
कविकुलशिरोमणि॑ महाकवि वाणभट्ट विरचित अद्वितीय कथात्मक रचना "कादम्वरी" के कथामुख भाग का एक अंश "शुकशावकोदन्तः" से उद्धृत है। शुकशावक कि यह आपवीती है। विन्ध्याटवि में स्थित पम्पा सरोवर के पास विशाल शाल्मली वृक्ष के एक कोटर में रहनेवाले पिता के पुत्र स्वरूप शुकशावक ने जन्म लिया। प्रसवबेदना से माता की मृत्यु हो गई। पिता शोक छोडकर  शुकशावक के पालनपोषण में जुटगए।
एकदिन सूर्योदय से पहले विन्ध्याटवी में शिकार करने के लिए शवरसैन्यों के साथ सेनापति पहुँचे।शिकार करने के बाद शाल्मली वृक्ष के नीचे श्रम/ क्लान्त(/थकावट) दूरकर उचित दिशा में चलेगए। परन्तु उनमें से एक
बृद्धशवर ने सेनापति के चले जाने पर असावधानी /लापरवाही से उस शाल्मलीवृक्ष को चढकर वृक्षकोटर से शुकशावकों को फलसदृश निर्दयतापूर्वक निकाला। और प्राणहीन कर भूमि पर  फेंक दिया  पिता भी विषादशून्य तथा आँसू के जल से भीगी हुई उस दृश्य को देखकर इधर उधर विखरे हुए पंखों को इकट्ठे कर मुझे ढक कर स्नेह परवश होते हुए उस के रक्षा के लिए आकुल हो उठे। यह पाप भी क्रमशः अन्य शाखाओं से चलता  हुआ शुकशावक के कोटर द्वार में प्राप्त(पहुंचा) हुआ सर्प जैसे भयानक प्रसारित बाहु को वारवार चोंच से प्रहार करने से तथा कूजन करने से क्रुद्ध होकर पिता को प्राणहीन करदिया परन्तु मुझे छोटे होने पर किसी प्रकार से देख नहीं पाया। और मृत उनको धरती पर छोड़ दिया। वह भी उनके पाँवों के मध्य गर्दन रखकर गोद के नीचेे निश्चल  रहकर हवा से एकत्रित सुखे पत्तों के ऊपर गिरा हुआ स्वयं को देखा। जब तक यह वृक्ष के अग्र भाग से अवतरण करता है, तब तक शुकशावक  मृत पिता के ऊपर से उठकर क्रूर जैसा स्नेहरस से अंजान भय से ही केवल आक्रान्त होता हुआ इधर उधर गिरता पडता निकटवर्ती तमालवृक्ष के मूलदेश में प्रवेश किया।
             पक्ष उत्पन्न न होने से वारवार मुख से गिरता हुआ मुस्किल से साँस लेता हुआ धूलिधूसरित होनेवाला घिसटता हुआ शुकशावक के मन में इसलिए यह उत्पन्न हुआ की - इस जगत में सभी प्राणियों का 'जीवन' से प्रियतर और कुछ नहीं है ।  



  
घ)   सज्जनों का चित्त   प्रायशः कारणरहित मित्रता  और अत्यधिक करुणा से पूर्ण होता है। क्योंकि मुनिकुमार हारीत ने शुकशावक के उस अवस्था को देखकर वह उस को सरोवर के किनारे ले गया। और स्वयं जलबिन्दु लाकर पिलाया। प्राणोदय होनेपर उस को छाया में रखकर स्नानविधि किया। स्नानाभिषेक समाप्त होनेपर सभी मुनिकुमारों के समूह  से पीछा किया जाता हुआ उसे लेकर (हारित ने) तपोवन चलागया। 



६. 
      १) समाहृत्य  -   सम्+आ+हृ+ल्यप्
      २) आकर्ण्य -  आ+कर्ण्+ ल्यप्
      ३) निष्क्रम्य -  निः + क्रम् + ल्यप्
      ४) विक्षिपन् -  वि + क्षिप् + शतृन्
       ५.   उपरतम्  -  उप +रम् + क्त 

        ६.   गृहीत्वा - ग्रह्+ क्त्वाच्

        ७.  अभिलाषः - अभि + लष् + स्यञ्

          ८.  संचरमाणः  -  सम् + चर् + शानच्


७.

   क) अस्ति भुवो मेखलेव विन्ध्याटवी नाम।

       ख)  ममैव जायमानस्य प्रसववेदनया मे जननी  मृता।

     ग)  अहो मोहप्रायम एतेषां जीवितम्।

     घ)  तातः तद विषादशून्यां अश्रुजलप्लुतां दृशमवलोक्य इतस्ततो विक्षिपन पक्षसंपुटेन मां आच्छाद्य स्नेहपरवशो  मद्रक्षणे आकुलः अभवत्।




समाप्तम्

     


सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)

 अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य बर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥(महर्षि मनुः)  अर्थ  -               प्रतिदिन नियमितरूपसे गुरु...