Showing posts with label Class - 10. Show all posts
Showing posts with label Class - 10. Show all posts

Monday, June 3, 2024

NCERT, SANSKRIT SHEMUSHI CLASS -10 CHAPTER - 8 SUKTAYAH



९. 
          बाल्यावस्था में पिता पुत्र को विद्यारूपी श्रेष्ठ धन प्रदान करता है। इसके पिता  क्या तपस्या की -यह कहना ही उसकी कृतज्ञता है। 
२.   
         मन में जैसी सरलता हो वैसी ही यदि वाणी में हो तो उसे महापुरुष लोग वास्तव में समता की भावना कहते हैं
३. 
         जो व्यक्ति धर्मयुक्त वाणी (वचन) को छोड़कर कठोर वचन कहता है वह मुर्ख है जिसने पके हुए फलों को त्याग कर कच्चे फल खाता है। 
४.  
         इस संसार में विद्वान् लोग ही आँखों वाले (चक्षुष्मान्) कहे जाते हैं। परन्तु दूसरों के मुख पर जो नेत्र है वे तो केवल नाममात्र की है। 
५.
         जिस किसी के द्वारा भी जो कहा गया उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा लिया जाता है उसे विवेक कहते है। 
६.
         जो मंत्री वाणी में चतुर, धैर्यवान्, सभा में निडर होता है, वह शत्रु के द्वारा किसी प्रकार भी अपमानित नहीं किया जाता।
७.
        जो अपना कल्याण और बहुत सारे सुख चाहता है उसे दूसरों का अहित कभी नहीं करना चाहिए।
८. 
        आचरण(व्यवहार) प्रथम धर्म है, यह विद्वानों का वचन है। इसलिए मनुष्य को आचरण की रक्षा प्राणों से भी बढ़कर करनी चाहिए।


अभ्यासः



१.  प्रश्नानामुत्तरम् एकपदेन दीयताम्  -
क)   विद्याधनम्
ख)    धर्मप्रदां
ग)    विद्वांसः
घ)    सदाचारः
ङ)    अहितम्
च)    अवक्रता
२.    स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत  -
   (क)   संसारे के ज्ञानचक्षुभिः नेत्रवन्तः कथ्यन्ते ?
    (ख)   जनकेन कस्मै शैशवे विद्याधनं दीयते ?
    (ग)    कस्य निर्णयः विवेकेन कर्तुं शक्यः ?
    (घ)    धैर्यवान् कुत्र परिभवं न प्राप्नोति ?
    ङ)    आत्मकल्याणमिच्छन् नरः  केषां अनिष्टं न कुर्यात् ?

३.   पाठात् चित्वा अधोलिखितानां श्लोकानां अन्वयम् उचितपदक्रमेण पूरयत -
   (क)   पिता पुत्राय बाल्ये महत् विद्याधनं यच्छति, अस्य पिता किं तपः तेपे इत्युक्तिः तत् कृतज्ञता। 
    (ख)    येन केनापि यत् प्रोक्तं तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः येन कर्तुं शक्यः भवेत् सः विवेक इति ईरितः।
    (ग)    य आत्मनः श्रेयः प्रभूतानि सुखानि च इच्छति, स परेभ्यः अहितं कर्मं कदापि च न कुर्यात्। 
४.    अधोलिखितम् उदाहरणद्वयं पठित्वा अन्येषां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत -
                           प्रश्नाः                                        उत्तराणि
     क.   श्लोक संख्या   - ३
    यथा -  सत्या मधुरा च वाणी का ?                          धर्मप्रदा
             (क)  धर्मप्रदां वाचं कः त्यजति ?                    विमूढधीः
             (ख)   मूढः पुरुषः कां वाणीं वदति ?                 परुषां
             (ग)    मन्दमतिः कीदृशं फलं खादति ?            अपक्वम्
     ख.    श्लोक संख्या  -  ७ 
    यथा  -   बुद्धिमान् नरः किम् इच्छति ?                   आत्मनः श्रेयः
              (क) कियन्ति सुखानि इच्छति ?                  प्रभूतानि
              (ख)   सः कदापि किं न कुर्यात् ?                अहितं कर्मं
              (ग)   सः केभ्यः अहितं न कुर्यात् ?                  परेभ्यः

५.   मञ्जूषायाः तद्भावात्मकसूक्तीः विचित्य अधोलिखितकथनानां समक्षं लिखत -
    (क)    विद्याधनं महत्  -
             विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।
             विद्याधनं श्रेष्ठं तन्मूलमितरद्धनम्।
   (ख)    आचारः प्रथमो धर्मः  -
            आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।
            आचारप्रभवो धर्मः सन्तश्चाचारलक्षणाः।
   (ग)   चित्ते वाचि च अवक्रता एव समत्वम् ।
           मनसि एकं वचसि एकं कर्मणि एकं महात्मनाम्।
           सं वो मनांसि जानताम्।
६.   (अ)   अधोलिखितानां शब्दानां पुरतः उचितं विलोमशब्दं कोष्ठकात् चित्वा लिखत -
                      शब्दाः                         विलोमशब्दः
     (क)           पक्वः                             अपक्वः
     (ख)         विमूढधीः                           सुधीः
     (ग)           कातरः                           अकातरः
     (घ)          कृतज्ञता                         कृतघ्नता
     (ङ)          आलस्यम्                        उद्योगः
     (च)            परुषा                             कोमला
(आ)   अधोलिखितानां शब्दानां त्रयः समानार्थकाः शब्दाः मञ्जूषायाः चित्वा लिख्यन्ताम्  -
  (क)  प्रभूतम्  -         भूरि,      विपुलम्,      बहु
  (ख)   श्रेयः  -     शुभम्,       शिवम्,      कल्याणम्,    मंगलम्
  (ग)   चित्तम्    -       मानसम्,      मनः,   चेतः
  (घ)    सभा   -     परिषद्,          संसद्,     समितिः
  (ङ)   चक्षुष्    -    लोचनम्,      नेत्रम्,     नयनम्,    अक्षि
  (च)  मुखम्    -     आननम्,     वक्त्रम्,    वदनम्   
७.     अधस्ताद् समासवग्रहाः दीयन्ते तेषां समस्तपदानि पाठाधारेण दीयन्ताम्  -
                        विग्रहः                       समस्तपदम्                   समासनाम
   (क)  तत्त्वार्थस्य निर्णयः               तत्त्वार्थनिर्णयः           षष्ठी तत्पुरुषः
   (ख)  वाचि पटुः                                     वाग्पटुः                   सप्तमी तत्पुरुषः
   (ग)   धर्मं प्रददाति इति (ताम्)               धर्मप्रदां                   उपपदतत्पुरुषः
   (घ)   न कातरः                                      अकातरः                  नञ् तत्पुरुषः
   (ङ)    न हितम्                                       अहितम्                   नञ् तत्पुरुषः
   (च)   महान् आत्मा येषाम्                      महात्मानः                  बहुब्रीहिः
   (छ)  विमूढा धीः यस्य सः                       विमूढधीः                    बहुब्रीहिः        

Saturday, June 1, 2024

NCERT, SANSKRIT SHEMUSHI CLASS --10 CHAPTER - 6 SOUHARDAM PRAKRITEH SHOBHA



                   (वन का दृश्य, पास में ही एक नदी भी बह रही है।) एक शेर सुखपूर्वक विश्राम कर रहा है तभी एक बन्दर आकर उसका पूंछ पकड़ कर घुमा देता है। क्रोधित शेर उसको मारना चाहता है परंतु बंदर छलांग मार कर पेड़ पर चढ़ जाता है। तभी दूसरे पेड़ से एक और बंदर आकर शेर के कान खींच कर फिर पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार बंदरों ने शेर को तंग करते हैं। क्रोधित शेर इधर उधर दौड़ता है, गरजता है परंतु कुछ भी करने में असमर्थ ही रहता है। बंदर सब हंसते हैं और पेड़ पर स्थित अनेक पक्षियाँ भी शेर की ऐसी अवस्था देख कर हर्षमिश्रित चहचहाहट करते हैं। 

      नींद टूट जाने के दुःख से दुःखी होते हुए भी  तुच्छ जीवों से अपनी ऐसी बुरी दशा से थका हुआ वनराज सभी जन्तुओं को देखकर पुछता है -- 
 सिंहः   -- ( गुस्से से गरजते हुए)  अहो! मैं वनराज हूँ क्या तुम्हें डर नहीं लगता है? क्यों तुम सब मिल कर मुझे इस तरह तंग करते हो? 
एकः वानरः -- क्योंकि तुम वनराज  होने के लिए सर्वथा अयोग्य हो। राजा  तो रक्षक होता है परंतु आप तो भक्षक हैं।और अपनी रक्षा करने में भी आप असमर्थ हैं तो हमारी रक्षा कैसे करेंगे?
अन्यः वानरः --  क्या तुम ने पंचतंत्र के उक्ति नहीं सुना है -- 
     श्लोकः  -- जो सर्वदा विशेष रूप से डरे हुए पीड़ित जीवजन्तुओं को दूसरों से रक्षा नहीं करता है वह मनुष्यरूप में यमराज के समान है । इसमें कोई संदेह नहीं। 
काकः -- हाँ तुम ने सत्य कहा -- वास्तव में मैं ही वनराज बनने के लायक हूँ। 
पिंकः --  (मज़ाक  उड़ाते हुए)  तुम कैसे जंगल का राजा बन ने के लायक हो, जहाँ तहाँ का-का इस कटु ध्वनि से वातावरण को व्याकुल करते हो। न रूप है न ध्वनि है। काला रंग युक्त, शुद्ध और अशुद्ध भक्षण करने वाले तुम्हें हम कैसे वनराज मान लें? 
काकः  -- अरे! अरे! क्या बोल रहे हो? यदि मैं काले रंग का हूँ तो तुम क्या गोरे रंग की हो? और भी क्या भूल गए हो कि    मेरी सत्यप्रियता लोगों के लिए उदाहरण जैसी है-- 'झूठ बोलोगे तो कौवा काटेगा'। हमारे परिश्रम और एकता विश्वप्रसिद्ध है और भी कौए की तरह कोशिश करने वाला विद्यार्थी ही आदर्श छात्र माना जाता है। 

पिकः  -  डींगे मारना बन्द करो। क्या यह नहीं सुना कि -

       कौवा और कोयल दोनों काले होते हैं, दोनों में अन्तर कैसा? किन्तु वसन्त ऋतु आने पर कौवा  कौवा होता है और कोयल कोयल होती है।

काकः -- अरे दूसरों के द्वारा पाली गई! यदि मैं तुम्हारे सन्तानों को न पालुं, तो तुम कोयल कहाँ होते? इसलिए मैं ही पक्षिसम्राट कौवा हूँ।

गजः --  (पास आते हुए) अरे! अरे! सभी की वातचित सुनते हुए ही मैं यहाँ आया हूँ। मैं विशाल शरीरवाला, बलवान और पराक्रमी हूँ। चाहे शेर हो या अन्य कोई भी जीव। जंगली पशुओं को तंग करते हुए प्राणी को मैं अपनी शुण्ड से पटक पटक कर मारता हूँ। क्या और कोई भी ऐसा पराक्रमी है। इसलिए मैं ही वनराज पद के लिए योग्य हूँ।

वानरः - अरे! अरे! एसा है (शीघ्र ही हाथी का पुंछ खींचकर पेड़ पर चढ़ जाता है।)

(हाथी उस पेड़ को ही अपनी शुण्ड से उखाड़ना चाहता है किन्तु बंदर भी कूद कर दूसरे पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार हाथी को एक पेड़ से दूसरे पेड़ की ओर दौड़ता देखकर सिंह भी हँसता है और कहता है।)

सिंहः -  अरे हाथी! मुझे भी इन बंदरों ने इस प्रकार तंग किया।

वानरः - इस कारण से ही कहता हूँ की मैं ही वनराजपद के लिए योग्य जिस्से वा जिसके द्वारा विशालकाय ,पराक्रमी और भयंकर होने पर भी सिंह अथवा हाथी को पराजित करने में हमारा जाति समर्थ है। इसलिए वन्यप्राणीओं के रक्षा के लिए हम ही योग्य अथवा सक्षम हैं।

      (यह सव सुनकर नदी से एक बगुला)

बकः  -  अरे! अरे! मुझे छोडकर ओर कोई मी राजा बनने के लिए योग्य या समर्थ है? मैं तो ठंडे पानी में अधिक समय तक बुद्धिमान जैसा(या स्थितप्रज्ञ सदृश) अविचल ध्यानमग्न रहकर सभी के रक्षा के लिए उपायें( तरिकाएँ) सोचुँगा, और योजना बना कर अपनी सभा में विभिन्नपदाधिकारी और  प्राणियों के साथ मिलकर रक्षाउपायों को क्रियान्वित करवाउँगा। इसलिए मैं ही वनराज पद प्राप्त करने के लिए योग्य हूँ।

मयूरः  -   (पेड के ऊपर से - ठहाका मारते हुए) आत्मप्रशंसा से दूर रहो दूर रहो (अथवा अपनी प्रशंसा मत करो) क्या तुम नहीं जानते कि -

      यदि राजा अच्छा  नेेता न हो तो प्रजा नाविकरहित नौका के समान यहाँ समुद्र में डूब जाती है। 

    तुम्हारे ध्यानावस्था को कौन नहीं जानता। स्थिर बुद्धि वाले की तरह स्थिर होकर  छलपूर्वक मछलियों को क्रुरता से खा जाते हो। तुम्हे धिक्कार है। तुम्हारे कारण से तो सम्पूर्ण पक्षियों के कुुल अपमानित हो गया है।

वानरः  - (गर्व सहित) इसलिए कह रहा हूँ कि मैं ही वनराजपद के योग्य हूँ। शीघ्र ही मेरे राज्याभिषेक के लिए सभी वन्यप्राणी तैयार हो जाओ।

मयूरः - अरे बंदर! चुप हो जाओ। तुम वनराज पद के योग्य कैैसे हो? देखो देखो मेरे सिर पर राजमुकुट सदृश शिखा को स्थापित कर विधाता ने मुझे पक्षिराज बना दिया। इसलिए वन में रहनेवाले मुझे वनराज के रूप में भी देखने के लिए वर्तमान तैयार हो जाओ। क्योंकि अन्य कोई भी विधाता के निर्णय(फैसले) को कैसे बदल सकता है।

काकः - (व्यङ्ग के साथ) अरे सर्प को खानेवाले! नृत्य के अतिरिक्त तुम्हारी और क्या विशेषता है कि हम सव तुम्हे वनराज पद के लिए योग्य मानलें?

मयूरः  -  क्योंकि मेरा नृत्य तो प्रकृति की आराधना है। देखो! देखो! मेरे पंखों का अनुपम सौन्दर्य को (पंखों को खोलकर नृत्य की मुद्रा में खडे होकर) तीनों लोकों में मेरे जैसा सुन्दर कोई भी नहीं है। वन्यप्राणियों के ऊपर आक्रमण करने वाले को तो में अपनी सौन्दर्य और नृत्य से आकर्षित कर जंगल से बहिष्कार (बाहर) कर दुंगी। इसलिए मैं ही वनराजपद के लिए योग्य हूँ।

(इसी समय ही बाघ और चिता भी नदी का जल पीने आए और इस विवाद(झगडे) को सुनकर बोलते हैं)

ब्याघ्रचित्रकौ - अरे क्या वनराजपद के लिए सुपात्र का चयन कर रहे हो?

   इस के लिए तो हम दोनों योग्य हैं। जिस किसी का भी सर्वसम्मति से आपसब चयन करो।

सिंहः - अरे चुप हो। तुम दोनों भी मेरे जैसे भक्षक हो रक्षक नहीं। यह जंगल के जीव भक्षक को रक्षक पद के योग्य नहीं मानते। इसलिए विचारविमर्श चल रहा है।

बकः  - शेर महोदय के द्वारा सम्पूर्ण रूप से ठीक कहा गया। वास्तव में शेर के द्वारा बहुत समयतक शासन किया गया। परन्तु अव तो कोई पक्षी ही राजा बनेगा यह निश्चित है। इसमें बिलकुल भी सन्देह की अवकाश(गुंजाइश) नहीं है।

 सभी पक्षी - (ऊँचे स्वर से) कोई पक्षी ही जंगल का राजा बनेगा(लेकिन कोई भी पक्षी अपने अतिरिक्त किसी ओर को इस पद के योग्य नहीं मानता तो निर्णय कैसे हो?) 

तब उन सब के द्वारा गहरी नींद में बेफिक्र  सोये हुए उल्लू को देखकर विचार किया  कि ये अपनी प्रशंसा से रहित पद को चाहने से रहित उल्लू ही हमारा राजा होगा। 
तो राज्याभिषेक से सम्बन्धित सारी सामग्री ले आओ ऐसी आदेश एक दूसरे को दे दिया। 
सभी पक्षी तैयारी के लिए जाना चाहते हैँ तभी अचानक  ही --

काकः  -  (अट्टहासपूर्ण स्वर सेे) - यह सर्वथा अनुचित है कि मयूर-हंस-कोयल-चटवा-तोता-सारस आदि उपस्थित प्रधान पक्षिओं से सभी इस दिवान्ध तथा भयङ्कर मुखवाले का अभिषेक के लिए तैयार(प्रस्तुत) हो रहे हैं। सारा दिन नींद में डुबा हुआ यह  हमको कैसे रक्षा करेगा( बचाएगा)।

 वास्तव में - 

    स्वभाव से क्रोधी, अत्यन्त उग्र, क्रूर, अप्रिय बोलनेवाले उल्लू को राजा बनाकर कौनसा सिद्धि प्राप्त  होगा।

               (तव प्रकृतिमाता प्रवेश करती है)

(स्नेहपूर्वक) हे प्राणियों! तुम सभी ही मेरे बच्चे हो। आपस में क्यों झगडा कर रहे हो। वास्तव में जंगल के सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं। सदैव(हमेशा) स्मरण रखो - 

    प्रदान करता है स्वीकार करता है, रहस्य कहता है पूछता है, खाता और खिलाता है - यह छह प्रकार स्नेह के लक्षण हैं।

      (सभी प्राणी एक स्वर से)

हे माता! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं परन्तु हम सव आपको नहीं जानते हैं। आपका परिचय क्या है?

प्रकृतिमाता - मैं प्रकृति तुम सबके माता  हूँ। तुम सव मेरे प्रिय हो। सवका ही मेरे लिए उचित समय पर महत्त्व है। झगडे से समय को बेकार मत जाने दो और भी तुम सब मिल कर  प्रसन्न हो जाओ एवं जीवन को रसमय बनाओ। जैसे कि कहा गया है - 

       प्रजा के सुख में राजा का सुख होता है और प्रजाओं के हित में राजा का हित है। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजा की प्रियता ही राजा का हित है॥

और भी -

   अत्यधिक जलधारा में संचरण करने वाला रोहित (रोहू) नामक बडी मछली घमंड(गर्व) नहीं करता है। परन्तु अंगुठे के बराबर जल में(अर्थात् थोडे से जल में) छोटी मछली उछलति रहती है।

   इसलिए आपसब भी छोटी मछली के समान परस्पर का गुण का चर्चा(आलोचना ) छोड कर, मिलकर प्रकृति की सौन्दर्य के लिए और वन की रक्षा के लिए प्रयत्न(प्रचेष्टा) कीजीए।

सब प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैैं और मिलकर दृढसंकल्पपूर्वक गाते हैं - 

 आपस(एक दूसरे) में झगडनेसे प्राणियों की हानि (क्षति) होती है। परस्पर के सहयोग से उनका लाभ उत्पन्न होता है॥


 अभ्यासः 


१.    अधोलिखित प्रश्नानामुत्तराणि एकपदेन लिखत -

  क)      

 उत्तरम् -  तुच्छजीवैः 

   ख)

उत्तरम् - काकः 

  ग) 

 उत्तरम् -  आदर्शः 

   घ)

 उत्तरम् - गजः  

ङ)

 उत्तरम् -  वराकान् 

   च)

 उत्तरम् -  पिच्छान् उद्घाट्य 

   छ) 

 उत्तरम् -  उलूकस्य 

   ज)

 उत्तरम् -  दश  

२.  अधोलिखितप्रश्नानामुत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत -  

 क)  

उत्तरम् -      निःसंशयं सिंहः कृतान्तः मन्यते।

ख) 

 उत्तरम् -   बकः वन्यजन्तूूनां रक्षोपायान् शीतले जले बहुकालपर्यन्तं अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा चिन्तयितुं कथयति।

ग) 

 उत्तरम् -  अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथममिदं वदति यत्, भोः प्राणिनः! यूयं सर्वे एव मे सन्ततिः।

घ)  

उत्तरम् -   यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा अकर्णधारा नौः इव जलधौ विप्लवेत्।

३. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत  -

क)  सिंहः वानराभ्यां कस्याम् असमर्थः एव आसीत्?

ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं केन पोथयित्वा मारयति?

ग)  वानरः आत्मानं कस्मै योग्यः मन्यते?

घ)  मयूरस्य नृत्यं कस्याः आराधना?

ङ)  सर्वे काम् प्रणमन्ति?

४.  शुद्धकथनानां समक्षम्   "आम्" अशुद्धकथनानां  च समक्षं "न" इति लिखत  -

   क)  न

   ख)   न

   ग)  आम्

   घ)   न

   ङ)   आम्

   च)   आम्

५. 

  क)   काकः मेध्यामेध्यभक्षकः भवति।

   ख)  पिकः परभृत् अपि कथ्यते।

   ग)  बकः अविचलः स्थितप्रज्ञ इव तिष्ठति।

   घ)   मयूरः अहिभुक् इति नाम्नाऽपि ज्ञायते।

   ङ)   सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते यथासमयम्।

६. 

   क)   गजः

   ख)   काकः

  ग)  मयूरः

   घ)   वानरः

    ङ)   सिंहः

   च)   रोहितः

    छ)   प्रकृतिमाता

   ज)    उलूकः

७.

  क)  त्वं सत्यं अकथयः।

   ख)   सिंहेन सर्वजन्तवः पृष्टाः।

   ग)    काकेन पिकस्य सन्ततिः पालयते।

घ)   मयूरं विधाता एव पक्षिराजं वनराजं वा कृतवान्।

ङ)   सर्वे खगाः कमपि खगं वनराजं कर्तुमिच्छन्ति स्म।

च)   सर्वैः मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नः कर्तव्यः।

८.   क)   तुच्छजीवैः -  तुच्छैः जीवैः।
       ख)   वृक्षोपरि    -  वृक्षस्य उपरि। 
       ग)    पक्षीणां सम्राट्  -  पक्षिसम्राट्। 
       घ)    स्थिता प्रज्ञा यस्य सः  -  स्थितप्रज्ञः।
       ङ)    अपूर्वम्  -  न पूर्वम् ।
       च)    व्याघ्रचित्रका -  व्याघ्रः च चित्रकः च।
९. 
क)    क्रुध् + क्त  -  क्रुद्धः 
ख)  आकृष्य  -   आ + कृष् + ल्यप् 
ग)   सत्यप्रियता -  सत्यप्रिय + तल्  +टाप् 
घ)   पराक्रमी -  पराक्रम + णिनि
ङ)   कूर्द् + क्तवा   -   कूर्दित्वा
च)  श्रृण्वन् -  श्रृ + शतृन् 

Thursday, May 23, 2024

NCERT, SANSKRIT SHEMUSHI CLASS- 10 CHAPTER- 5 SUBHASITANI

                                                 



१.  आलस्य ही मनुष्यों का शरीर स्थित महान शत्रु है। परिश्रम के समान कोई भी बन्धु नहीं जिसको करके मनुष्य दुःखी नहीं होता है।

२.  गुणवान व्यक्ति गुणों को जानता है, परन्तु गुणहीन पुरुष गुणों को नहीं जानता। बलवान व्यक्ति बल को जानता है तथा निर्बल बल को नहीं जानता। कोयल वसंत के गुण को जानती है, कौआ नहीं। शेर के बल को हाथी जानता है, चूहा नहीं॥

३.  जो कारण को मानकर ही क्रोधित होता है, निश्चित रूप से उस कारण के समाप्त होने पर वह प्रसन्न होता है। परन्तु जिसका मन अकारण ही द्वेष करने वाला है, उसको व्यक्ति किस प्रकार सन्तुष्ट करेगा।

४.  कहा हुआ वाक्य पशु के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। प्रेरित किए गए घोड़े और हाथी भी भार वहन करते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति बिना कही गई बात का भी अंदाजा लगा लेते हैं, क्योंकि दूसरे व्यक्तियों के द्वारा संकेत से लिए गए ज्ञान रूपी फल वाले होती हैं बुद्धियाँ॥

५.  क्रोध व्यक्तियों के शरीर के विनाश के लिए देह में स्थित पहला शत्रु है। जैसे लकड़ी में अग्नि समाई  होती है, और वह अग्नि ही शरीर को जलाता है॥

६.  हिरन हिरनों का अनुसरण करते हैं, गाय गायों के साथ, घोड़े घोड़ों का , मुर्ख मुर्खों का और विद्वान विद्वानों का अनुसरण करते हैं। मनुष्य की मित्रता समान स्वभाववालों में होती है॥

७.  फल और छाया से युक्त महान वृक्षों का आश्रय लेना चाहिए। यदि भाग्य से फल प्राप्त न हो तो छाया को कौन रोक सकता है॥

८.  मन्त्र से हीन अक्षर नहीं होता, औषधी से जड़ नहीं होती है। इस संसार में कोई भी अयोग्य नहीं होता है,  जोड़ने वाला ही दुर्लभ होता है॥

९. संपत्ति में  और विपत्ति में (- उभय काल में) महापुरुषोँ की स्थिति समान रहती है ॥ जैसै उदय काल में सूर्य रक्तवर्ण होते हैं, उसी प्रकार अस्त समय में लाल रंग के होते हैं॥

१०.  इस विचित्र संसार में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। यदि घोड़ा दौड़ने में वीर है, तो गधा बोझ ढोने में वीर होता है॥

                                               अभ्यासः

१.  अधोलिखितानां प्रश्नानाम उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-

    (क)  केन समः बन्धुः नास्ति?

 उत्तरम्-   उद्यमेन  समः बन्धुः नास्ति।

  (ख)  वसन्तस्य गुणं कः जानाति?

  उत्तरम्-  पिकः वसन्तस्य गुणं जानाति।

 (ग)  बुद्धयः कीदृश्यः भवन्ति?

 उत्तरम्-  बुद्धयः परेङ्गितज्ञानफला भवन्ति।

(घ)  नराणां प्रथमः शत्रुः कः?

  उत्तरम्-  क्रोधः नराणां प्रथमः शत्रुः अस्ति।

 (ङ)  सुधियः सख्यं केन सह भवति?

  उत्तरम्- सुधियः सख्यं सुधिभिः सह भवति।

  (च)  अस्माभिः कीदृशः वृक्षः सेवितव्यः?

  उत्तरम्-  अस्माभिः फलच्छायासमन्वितः वृक्षः सेवितव्यः।

 २.  अधोलिखिते अन्वयद्वये रिक्तस्थानपूर्तिं कुरुत-

      (क)  यः निमित्तम् उद्दिश्य प्रकुप्यति सः तस्य अपगमे ध्रुवं प्रसीदति। यस्य मनः अकारणद्वेषी अस्ति, जनः तं कथं परितोषयिष्यति?

   (ख)   विचित्रे संसारे खलु किञ्चित् निरर्थकम् नास्ति। अश्वः चेत् धावने वीरः खरः भारस्य वहनेे (वीरः)   (भवति)

३.  अधोलिखितानां वाक्यानां कृते समानार्थकान श्लोकांशान पाठात चित्वा लिखत-

     (क)  श्लोकांश-   अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः।

    (ख)  समान-शील-व्यसनेषुु सख्यम्।

   (ग)   नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।

  (घ)  संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।

 ४.  यथानिर्देशं परिवर्तनं विधाय वाक्यानि रचयत-

   (क)  गुणिनः गुणान् जानन्ति।

   (ख)  पशुना उदीरितः अर्थः गृह्यते।

   (ग)  मृगः मृगेण सह अनुब्रजति।

   (घ)   केन छाया निवारयतेे।

  (ङ)  स एव वह्निः शरीरं दहति।

५.   (अ)   सन्धिं सन्धिविच्छेदं वा कुरत-

        क)     न   +    अस्ति   +    उद्यमसमः        -      नास्त्युद्यमसमः

      ख)  तस्य    +    अपगमे    -      तस्यापगमे

     ग)    अनुक्तम्     +      अपि      +     ऊहति     -      अनुक्तमप्यूहति

    घ)   गावः   +    च    -      गावश्च

     ङ)   न    +     अस्ति      -      नास्ति

    च)   रक्तः     +     च    +    अस्तमये    -     रक्तश्चास्तमये

   छ)    योजकः  +     तत्र     -    योजकस्तत्र


सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)

 अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य बर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥(महर्षि मनुः)  अर्थ  -               प्रतिदिन नियमितरूपसे गुरु...