Wednesday, June 26, 2024

NCERT SANSKRIT SHEMUSHI CLASS 10 CHAPTER - 10 ANYOKTAYAH

 

१.   एक राजहंस के द्वारा तालाब का जो शोभा होता है। (तालाब के) चारों ओर किनारे पर रहनेवाले हजारों बक के द्वारा वो शोभा नहीं होता है॥

२.  जहाँ आपके द्वारा कमलनाल का समूह खाया गया, जल भलीभाँति पीये गये, कमलों को  सेवन किये गये। रे राजहंस! उस सरोवर का कौनसे कार्य से अनुग्रह प्राप्त होगा, कहो॥

३. हे माली! ग्रीष्मकाल में सूर्य के अत्यधिक तपने पर थोडे पानी से भी आपके करुणा से इस वृक्ष का जो पोषण हुआ है, विश्वभर में वर्षाकालिक जलों के धाराप्रवाह को बरसाते हुए भी बादल के द्वारा यहाँ वो पोषण (उत्पन्न करने के लिए) सम्भव हो पाया क्या॥

४.  पक्षी चारों ओर आकाश-मार्ग को प्राप्त कर लिए, भँवरे आम की मञ्जरियों को आश्रय करते हैं। हे सरोवर! तुम्हारे सङ्कुचित होने पर, हा! संतप्त मछली किन्तु कब तक गति को प्राप्त करें॥

५.   एक ही स्वाभिमानी चातक पक्षी अरण्य में रहता है। प्यासा मर जाता है अथवा जल के लिए इन्द्रदेव को प्रार्थना करता है।

६.   सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतसमूह को तृप्त कर उन्नत काष्ठों से रहित वन और अनेक नदी और सैकडों नदों को भरकर हे बादल! जब शून्य होते हो , वो ही तुम्हारा उत्तम(श्रेष्ठ) वैभव है॥

७.   रे रे मित्र चातक! ध्यान से पल भर के लिए सुनो, आकाश में वहुत बादल हैं, सभी ऐसे नहीं हैं। कुछ पृथ्वी को जलवर्षा से भिगो देते हैं, कुछ वृथा (वेकार में) गर्जना करते हैं, (तुम)  जिस जिस को देखते हो उस उसके सामने दारिद्र्य वचन मत कहो।

 अभ्यासः

१.  अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत -

   क)    सरसः शोभा राजहंसेन भवति।
   ख)    चातकः बहूनि सरांसि स्थितं जलं त्यक्त्वा पिपासितः म्रियते वा पुरन्दरं याचते - एतदर्थं मानी कथ्यते।
   ग)     मीनः सरसः सङ्कोचनेन दीनां गतिं प्राप्नोति।
   घ)    नानानदीनदशतानि पूरयित्वा जलदः रिक्तः भवति।
   ङ)    वृष्टिभिः वसुधां अम्भोदाः आर्द्रयन्ति।

२.       अधोलिखितवाक्येषु रेखाङ्कितपदानि आधृत्य  प्रश्ननिर्माणं कुरुत -
   क)   मालाकारः कैः तरोः पुष्टिं करोति?
   ख)   भृङ्गाः कानि समाश्रयन्ते?
   ग)    के अम्बरपथम् आपेदिरे?
   घ)    कः नानानदीनदशतानि पूरयित्वा  रिक्तोऽस्ति?
   ङ)    चातकः कुत्र वसति?
३.      अधोलिखितयोः श्लोकयोः भावार्थं स्वीकृतभाषया लिखत -
     अ)     हे माली! ग्रीष्मकाल में सूर्य के अत्यधिक तपने पर अल्प जल से भी आपके कृपा से इस वृक्ष का जो वृद्धि  हुआ है, विश्वभर में वर्षाकालिक जलधारा को भी वरसाते हुए वादल के द्वारा वो पोषण क्या हो पाया।
    आ)     रे मित्र चातक! ध्यान से पलभर के लिए सुनो, आकाश में वहुत बादल हैं, सभी ऐसे नहीं हैं। कुछ पृथ्वी को जलवर्षा से भिगो देते हैं, कुछ वृथा गर्जना करते हैं, तुम जिस जिस को देखते हो उस उसके सामने दारिद्र्य वचन मत कहो।
४.     अधोलिखितयोः श्लोकयोः अन्वयं लिखत -
     अ)    पतङ्गाः परितः अम्बरपथम् आपेदिरे, भृङ्गाः रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते। सरः त्वयि सङ्कोचमञ्चति, हन्त दीनदीनः मीनः नु कतमां गतिं अभ्युपैतु।
    आ)   तपनोष्णतप्तम् पर्वतकुलम् आश्वास्य उद्धामदावविधुराणि काननानि च नानानदीनदशतानि पूरयित्वा च हे जलद! यत् रिक्तः असि तव सा एव उत्तमा श्रीः।
५.  उदाहरणमनुसृत्य सन्धिं / सन्धिविच्छेदं वा कुरुत -
     १)   यथा -   अन्य       +     उक्तयः     =        अन्योक्तयः
         क)      निपीतानि    +    अम्बूनि     =        निपीतान्यम्बूनि
         ख)          कृत        +    उपकारः      =        कृतोपकारः
         ग)         तपन        +   उष्णतप्तम्  =        तपनोष्णतप्तम्
         घ)          तव         +     उत्तमा       =        तवोत्तमा
         ङ)           न           +    एतादृशाः     =        नैतादृशाः
      २)    यथा -   पिपासितः     +      अपि    =        पिपासितोऽपि
          क)          कः               +      अपि    =        कोऽपि
          ख)       रिक्तः             +      असि    =        रिक्तोऽसि
          ग)        मीनः              +      अयम्   =        मीनोऽयम्
          घ)        सर्वे                +       अपि    =        सर्वेऽपि
       ३)    यथा -   सरसः +  भवेत्  =   सरसो भवेत्
           क)          खगः  +  मानी   =   खगो मानी
           ख)          मीनः  +   नु      =    मीनो नु
           ग)     पिपासितः +   वा     =    पिपासितो वा
           घ)         पुरतः   +   मा     =     पुरतो मा
       ४)    यथा -   मुनिः     +    अपि       =         मुनिरपि
           क)          तोयैः     +    अल्पैः       =         तोयैरल्पैः
           ख)         अल्पैः     +    अपि        =         अल्पैरपि
           ग)          तरोः      +     अपि        =         तरोरपि
           घ)       वृष्टिभिः   +  आर्द्रयन्ति   =     वृष्टिभिरार्द्रयन्ति
   ६.  उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितैः विग्रहपदैः समस्तपदानि रचयत -  
                        विग्रहपदानि                         समस्तानि
     यथा-      पीतं च तत् पङ्कजम्       =        पीतपङ्कजम्
     क)           राजा च असौ हंसः         =           राजहंसः
     ख)          भीमः च असौ भानुः       =          भीमभानुः
     ग)          अम्बरम् एव पन्थाः       =         अम्बरपन्थाः
     घ)          उत्तमा च इयम् श्रीः       =           उत्तमा श्रीः    
     ङ)     सावधानं च तत् मनः, तेन    =         सावधानमनसा
            
 ७. उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितैः धातुभिः सह यथानिर्दिष्टान् प्रत्ययान् संयुज्य शब्दरचनां कुरुत -
               धातुः         क्त्वा           क्तवतु            तव्यत्           अनीयर्  
    क)       पठ्          पठित्वा        पठितवान्        पठितव्यः       पठनीयः
    ख)       गम्          गत्वा           गतवान्          गन्तव्यः        गमनीयः
    ग)       लिख्       लिखित्वा     लिखितवान्      लिखितव्यः     लेखनीयः
    घ)         कृ          कृत्वा           कृतवान्          कर्त्तव्यः         करणीयः
    ङ)       ग्रह्          गृहीत्वा         गृहीतवान्       ग्रहीतव्यः        ग्रहणीयः
   च)        नी           नीत्वा           नीतवान्          नेतव्यः          नयनीय‌ः


                                                  समाप्तम्

  

Tuesday, June 18, 2024

NCERT SANSKRIT SHEMUSHI CLASS-10 CHAPTER- 9 BHUKAMPAVIBHEESIKA

 


          २००१ ख्रीष्टाब्द में गणतंत्र दिवस पर्व पर जब समग्र भारतराष्ट्र नृत्य गीत वाद्ययंत्रों के उल्लास में मग्न था तब अचानक ही गुर्जर राज्य चारों ओर से बेचैन, अस्तव्यस्त, विकलक्रन्दन और विपत्ति ग्रस्त हो गया। भूकम्प का भयानक घटणा (प्रलय) समग्र गुर्जरक्षेत्र को विशेषरूप से कच्छजनपद को विनाश के बाद बची हुई वस्तुओं में परिवर्तन किया। भूकम्प का केन्द्रस्वरूप भुजनगर तो मिट्टी के खिलौने के समान टुकडेे होगए। बहुमंजिले मकान क्षण में ही धराशायी होगए(जमीन में मिलगए)। बिजली के खम्बे उखड गये। घरों के सीढीओं के रास्ते बिखर गये। भूमि दो खण्डो में विभाजित हो गई। भूमि के गर्तों से ऊपर निकलती हुई जिनको हटाना कठिन है - ऐसी जलधाराओं से विशाल बाढ का दृश्य उपस्थित हो गया। हजारों संख्या में प्राणियाँ क्षण में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। विनष्ट मकानों में  हजारों पीडिता सहायता के लिए करुण क्रन्दन करते हैं। हे विधाता! भूख से दुर्बल कण्ठवाले मृतप्राय कुछ शिशु भगवत् कृपा से ही दो तीन दिन जीवन धारण किया था।
           यह था कच्छ भूकम्प का अतीव भयावह दृश्य। २००५ ख्रीष्टाब्द में भी कश्मीर प्रान्त में और पाकिस्तान देश में धरती का विशाल कम्पन हुआ।  जिस कारण से लाखों लोग असमय मृत्यु को प्राप्त हुए। पृथ्वी किस कारण से प्रकम्पित होता है- इस विषय में वैज्ञानिकों ने कहते हैं कि धरती के गर्भ के भीतर उपस्थित विशाल प्रस्तर जब संघर्षण(घिसने) के कारण टूटते हैँ तब अत्यधिक मात्रा में प्रस्तरों का अपने स्थान से हटना, और हटने से कम्पन होता है॥ वह भयावह कम्पन ही पृथ्वी के उपरि भाग पर भी आकर महाकम्पन उत्पन्न करती है  जिसे महाविनाश का दृश्य समुपस्थित होता है।
          ज्वालामुखपर्वतों का विस्फोट से भी भूकम्प होता है -ऐसे भूकम्पविशेषज्ञ कहते हैं। पृथ्वी के गर्भ में स्थित अग्नि जब भूमि को खोदने से प्राप्त वस्तु, मिट्टी,प्रस्तर आदि संग्रह को उबालती है तब वो सब ही लावारस को प्राप्त हो कर धरती अथवा पर्वत को फाडकर बाहर निकलता है। तब आकाश धुएँ और राख से ढक जाता है।सेल्सियश-ताप-मात्रा की एकसौ आठ(१०८) अङ्क को प्राप्त यह लावारस जब नदीवेग (नदी के धारा जैसी) से प्रवाहित होता है तब समीप के गाँव अथवा सहर उसके पेट में क्षण में ही समा जाती हैं। 
     और वेचारे (विवश) प्राणी मरते हैं। ज्वाला को प्रकट करते हुए ये पर्वत भी भीषण भूकम्प उत्पन्न करती हैं।
     यद्यपि भूकम्प भाग्य का प्रकोप है, उसको शान्त करने का कोई भी स्थिर उपाय नहीं दिखरहा है। आज भी प्रकृति के सामने विज्ञान से गर्व करने वाला मनुष्य वामन सदृश ही है तथापि भूकम्परहस्य को जानने वाले कहते हैं की बहु मंजिले मकानों का निर्माण नहीं करना चाहीए। नदी किनारे बान्ध बनाकर बृहत् मात्रा में नदी जल को भी एक जगह पर इकट्ठा नहीं करना चाहीए। अन्यथा असन्तुलन के कारण भूकम्प सम्भव है। वस्तुतः(फलस्वरूप) पृथ्वीजलअग्नीवायुआकाश इन पञ्चतत्वों का शान्त होना ही भूभाग का  योगक्षेम के  लिए उचित है॥ उन अशान्त पञ्चतत्त्व निश्चित रूप से महाविनाश को उपस्थापित करते हैं। 
अभ्यासः

१.  अधोलिखितानां प्रश्नानां उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत  -
क)    समस्तराष्ट्रं  नृत्य-गीतवादित्राणाम्  उल्लासे मग्नम् आसीत्।
ख) भूकम्पस्य केन्द्रबिन्दुः कच्छजनपदः आसीत्।
ग) पृथिव्याः स्खलनात् कम्पनं जायते।
घ) समग्रं विश्वम् विपन्नैः आतंकितः दृश्यते।
ङ) ज्वालामुखपर्वतानां विस्फोटैरपि भूकम्पो जायते।
च) बहुभूमिकानि भवनानि धराशायीनि जायन्ते।
२.  
क) भूकम्पविभीषिका विशेषेण कच्छजनपदं केषु परिवर्तितवती?
ख) के कथयन्ति यत् पृथिव्याः अन्तर्गर्भे, पाषाणशिलानां संघर्षणेन कम्पनं जायते?
ग)  विवशाः प्राणिनः कुत्र पिपीलिका इव निहन्यन्ते?
घ) किदृशी भयावहघटना गढ़वाल  क्षेत्रे घटिता?
ङ) तदिदानीं किं विचारणीयम् तिष्ठति?
४.  
क) समग्रं भारतम् उल्लासे मग्नः अस्ति। 
ख) भूकम्पविभीषिका कच्छजनपदं विनष्टं कृतवती।
ग) क्षणेनैव प्राणिनः गृहविहीनाः अभवन्।
घ) शान्तानि पञ्चतत्त्वानि भूतलस्य योगक्षेमाभ्यां भवन्ति।
ङ)  मानवाः पृच्छन्ति यत् बहुभूमिकभवननिर्माणं करणीयम्    न वा?
च) नदीवेगेन ग्रामाः तदुदरे समाविशेत्।
५.
(अ )   परसवर्णसन्धिनियमानुसारम्  -
  क)  किञ्च  -   किम्   +    च
   ख)   नगरन्तु   -   नगरम्    +   तु
   ग)   विपन्नञ्च   -    विपन्नम्   +   च
  घ)    किन्नु    -    किम्   +   नु
   ङ)   भुजनगरन्तु    -   भुजनगरम्   +   तु
   च)    सञ्चयः    -   सम्    +    चयः
(आ)  विसर्गसन्धिनियमानुसारम्   -
    क)   शिशवस्तु    -   शिशवः   +   तु
   ख)    विस्फोटैरपि     -     विस्फोटैः    +   अपि
   ग)   सहस्रशोऽन्ये   -     सहस्रशः     +   अन्ये
   घ)    विचित्रोऽयम्   -    विचित्रः   +   अयम्
   ङ)   भूकम्पो जायते   -   भूकम्पः   +   जायते
   च)    वामनकल्प एव   -   वामनकल्पः   +     एव
६.   (अ)    विलोमपदानां  संयोगं कुरुत   -
                                      क                                     ख
                             सम्पन्नम्                            विपन्नम्
                           ध्वस्तभवनेषु                         नवनिर्मितभवनेषु
                        निस्सरन्तीभिः                               प्रविशन्तीभिः
                                निर्माय                            विनाश्य
                                क्षणेनैव                          सुचिरेणैव
(आ)   समानार्थकपदानां संयोगं कुरुत  - 
                                क                                    ख
                            पर्याकुलम्                       व्याकुलम्
                       विशीर्णाः                                    नष्टाः
                                    उद्गिरन्तः                   प्रकटयन्तः
                                     विदार्य                                      संत्रोट्य
                                 प्रकुपिताम्                       क्रोधयुक्ताम्
     


 ७.  (अ)    प्रकृति-प्रत्यययोः विभागं कुरुत  -
        परिवर्तितवती   -    परि    +   वृत्    +क्तवतु   +   ङीप्  (स्त्री)
       धृतवान्            -      धृ   +    क्तवतु
                 हसन्   -   हस्  +   शतृन्
       विशीर्णा   -    वि    +   शृ  +     क्त    +टाप्
    प्रचलन्ती    -      प्र   +   चल्    +    शतृ    +   ङीप्  (स्त्री)
    हतः     -    हन्            +          क्त
    (आ)   समस्तपदानि लिखत  -
     महत् च तत्  कम्पनं  -   महत्कम्पनं
   दारुणा च सा विभीषिका   -   दारुण-विभीषिका
     ध्वस्तेषु च तेषु भवनेषु   -   ध्वस्तभवनेषु
   प्राक्तने च तस्मिन् युगे    -     प्राक्तनयुगे
    महत् च तत् राष्ट्रं  तस्मिन्   -   महद्राष्ट्रे









   

Thursday, June 6, 2024

अन्ताक्षरी (ANTAKSHARI part - I ) PRAYERS


  

                गजानन नमस्तुभ्यं प्रारभते अन्ताक्षरी -


*   वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटी समप्रभो

      निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

*   दुर्गात् सन्त्रायते यस्मात् देवी दुर्गेति कथ्यते।

     प्रपद्ये शरणं देवीं दुं दुर्गे दुरितं हर॥

*   रक्तज्वाल जटाधरं सुविमलं रक्ताङ्गतेजोमयं

   धृत्वा शूल कपाल पाश डमरून् लोकस्य रक्षाकरन्।

    निर्वाणं शुनवाहनं त्रिनयनं सानन्दकोलाहलम्

   वन्दे भूतपिशाचनाथवटुकं क्षेत्रस्य पालं शिवम्॥

*  व्रम्हमुरारी सुरार्चित लिङ्गम् 

निर्मल भाषित शोभित लिङ्गम्। 

कामज दुःखविनाशन लिङ्गम्

तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्॥

*  गुरवे सर्वलोकानां भिषजे भवरोगीणाम्।

निधये सर्वविद्यानां दक्षिणामूर्तये नमः॥

*   मूषिकवाहन मोदकहस्त चामरकर्ण विलम्वितसूत्र।

    वामनरूप महेश्वरपुत्र विघ्नविनायकपाद नमस्ते॥

*   त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजन्ति हीनमत्सराः।

   पतन्ति नो भवार्णवे वितर्क वीचि सङ्कुले॥(श्रीराम स्तुति )

*   ललाट चत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा

  निपीतपञ्चसायकं नमनिलिम्पनायकम्।

  सुधामयुखलेखया विराजमानशेखरः

  महाकपालिसम्पदे शिरोजटालमस्तुुनः॥

*   नन्दीश्वर नमस्तुभ्यं शान्तानन्दप्रदायक।

  महादेवेश सेवार्थं अनुज्ञां दातुमर्हसि॥ 

*  सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं

   सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।

   सहार वक्षस्थल कौस्तुभ श्रियं

   नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्॥

*   जपाकुसुम सङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।

   तमोऽरिं सर्वपापघ्नं  प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥

*  रक्ष त्वं देवदेवेशि देवदेवस्य वल्लभे।

दारिद्र्यात् त्राहि मां लक्ष्मि कृपां कुरु ममोपरि॥

    

Monday, June 3, 2024

NCERT, SANSKRIT SHEMUSHI CLASS -10 CHAPTER - 8 SUKTAYAH



९. 
          बाल्यावस्था में पिता पुत्र को विद्यारूपी श्रेष्ठ धन प्रदान करता है। इसके पिता  क्या तपस्या की -यह कहना ही उसकी कृतज्ञता है। 
२.   
         मन में जैसी सरलता हो वैसी ही यदि वाणी में हो तो उसे महापुरुष लोग वास्तव में समता की भावना कहते हैं
३. 
         जो व्यक्ति धर्मयुक्त वाणी (वचन) को छोड़कर कठोर वचन कहता है वह मुर्ख है जिसने पके हुए फलों को त्याग कर कच्चे फल खाता है। 
४.  
         इस संसार में विद्वान् लोग ही आँखों वाले (चक्षुष्मान्) कहे जाते हैं। परन्तु दूसरों के मुख पर जो नेत्र है वे तो केवल नाममात्र की है। 
५.
         जिस किसी के द्वारा भी जो कहा गया उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा लिया जाता है उसे विवेक कहते है। 
६.
         जो मंत्री वाणी में चतुर, धैर्यवान्, सभा में निडर होता है, वह शत्रु के द्वारा किसी प्रकार भी अपमानित नहीं किया जाता।
७.
        जो अपना कल्याण और बहुत सारे सुख चाहता है उसे दूसरों का अहित कभी नहीं करना चाहिए।
८. 
        आचरण(व्यवहार) प्रथम धर्म है, यह विद्वानों का वचन है। इसलिए मनुष्य को आचरण की रक्षा प्राणों से भी बढ़कर करनी चाहिए।


अभ्यासः



१.  प्रश्नानामुत्तरम् एकपदेन दीयताम्  -
क)   विद्याधनम्
ख)    धर्मप्रदां
ग)    विद्वांसः
घ)    सदाचारः
ङ)    अहितम्
च)    अवक्रता
२.    स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत  -
   (क)   संसारे के ज्ञानचक्षुभिः नेत्रवन्तः कथ्यन्ते ?
    (ख)   जनकेन कस्मै शैशवे विद्याधनं दीयते ?
    (ग)    कस्य निर्णयः विवेकेन कर्तुं शक्यः ?
    (घ)    धैर्यवान् कुत्र परिभवं न प्राप्नोति ?
    ङ)    आत्मकल्याणमिच्छन् नरः  केषां अनिष्टं न कुर्यात् ?

३.   पाठात् चित्वा अधोलिखितानां श्लोकानां अन्वयम् उचितपदक्रमेण पूरयत -
   (क)   पिता पुत्राय बाल्ये महत् विद्याधनं यच्छति, अस्य पिता किं तपः तेपे इत्युक्तिः तत् कृतज्ञता। 
    (ख)    येन केनापि यत् प्रोक्तं तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः येन कर्तुं शक्यः भवेत् सः विवेक इति ईरितः।
    (ग)    य आत्मनः श्रेयः प्रभूतानि सुखानि च इच्छति, स परेभ्यः अहितं कर्मं कदापि च न कुर्यात्। 
४.    अधोलिखितम् उदाहरणद्वयं पठित्वा अन्येषां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत -
                           प्रश्नाः                                        उत्तराणि
     क.   श्लोक संख्या   - ३
    यथा -  सत्या मधुरा च वाणी का ?                          धर्मप्रदा
             (क)  धर्मप्रदां वाचं कः त्यजति ?                    विमूढधीः
             (ख)   मूढः पुरुषः कां वाणीं वदति ?                 परुषां
             (ग)    मन्दमतिः कीदृशं फलं खादति ?            अपक्वम्
     ख.    श्लोक संख्या  -  ७ 
    यथा  -   बुद्धिमान् नरः किम् इच्छति ?                   आत्मनः श्रेयः
              (क) कियन्ति सुखानि इच्छति ?                  प्रभूतानि
              (ख)   सः कदापि किं न कुर्यात् ?                अहितं कर्मं
              (ग)   सः केभ्यः अहितं न कुर्यात् ?                  परेभ्यः

५.   मञ्जूषायाः तद्भावात्मकसूक्तीः विचित्य अधोलिखितकथनानां समक्षं लिखत -
    (क)    विद्याधनं महत्  -
             विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।
             विद्याधनं श्रेष्ठं तन्मूलमितरद्धनम्।
   (ख)    आचारः प्रथमो धर्मः  -
            आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।
            आचारप्रभवो धर्मः सन्तश्चाचारलक्षणाः।
   (ग)   चित्ते वाचि च अवक्रता एव समत्वम् ।
           मनसि एकं वचसि एकं कर्मणि एकं महात्मनाम्।
           सं वो मनांसि जानताम्।
६.   (अ)   अधोलिखितानां शब्दानां पुरतः उचितं विलोमशब्दं कोष्ठकात् चित्वा लिखत -
                      शब्दाः                         विलोमशब्दः
     (क)           पक्वः                             अपक्वः
     (ख)         विमूढधीः                           सुधीः
     (ग)           कातरः                           अकातरः
     (घ)          कृतज्ञता                         कृतघ्नता
     (ङ)          आलस्यम्                        उद्योगः
     (च)            परुषा                             कोमला
(आ)   अधोलिखितानां शब्दानां त्रयः समानार्थकाः शब्दाः मञ्जूषायाः चित्वा लिख्यन्ताम्  -
  (क)  प्रभूतम्  -         भूरि,      विपुलम्,      बहु
  (ख)   श्रेयः  -     शुभम्,       शिवम्,      कल्याणम्,    मंगलम्
  (ग)   चित्तम्    -       मानसम्,      मनः,   चेतः
  (घ)    सभा   -     परिषद्,          संसद्,     समितिः
  (ङ)   चक्षुष्    -    लोचनम्,      नेत्रम्,     नयनम्,    अक्षि
  (च)  मुखम्    -     आननम्,     वक्त्रम्,    वदनम्   
७.     अधस्ताद् समासवग्रहाः दीयन्ते तेषां समस्तपदानि पाठाधारेण दीयन्ताम्  -
                        विग्रहः                       समस्तपदम्                   समासनाम
   (क)  तत्त्वार्थस्य निर्णयः               तत्त्वार्थनिर्णयः           षष्ठी तत्पुरुषः
   (ख)  वाचि पटुः                                     वाग्पटुः                   सप्तमी तत्पुरुषः
   (ग)   धर्मं प्रददाति इति (ताम्)               धर्मप्रदां                   उपपदतत्पुरुषः
   (घ)   न कातरः                                      अकातरः                  नञ् तत्पुरुषः
   (ङ)    न हितम्                                       अहितम्                   नञ् तत्पुरुषः
   (च)   महान् आत्मा येषाम्                      महात्मानः                  बहुब्रीहिः
   (छ)  विमूढा धीः यस्य सः                       विमूढधीः                    बहुब्रीहिः        

Saturday, June 1, 2024

NCERT, SANSKRIT SHEMUSHI CLASS --10 CHAPTER - 6 SOUHARDAM PRAKRITEH SHOBHA



                   (वन का दृश्य, पास में ही एक नदी भी बह रही है।) एक शेर सुखपूर्वक विश्राम कर रहा है तभी एक बन्दर आकर उसका पूंछ पकड़ कर घुमा देता है। क्रोधित शेर उसको मारना चाहता है परंतु बंदर छलांग मार कर पेड़ पर चढ़ जाता है। तभी दूसरे पेड़ से एक और बंदर आकर शेर के कान खींच कर फिर पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार बंदरों ने शेर को तंग करते हैं। क्रोधित शेर इधर उधर दौड़ता है, गरजता है परंतु कुछ भी करने में असमर्थ ही रहता है। बंदर सब हंसते हैं और पेड़ पर स्थित अनेक पक्षियाँ भी शेर की ऐसी अवस्था देख कर हर्षमिश्रित चहचहाहट करते हैं। 

      नींद टूट जाने के दुःख से दुःखी होते हुए भी  तुच्छ जीवों से अपनी ऐसी बुरी दशा से थका हुआ वनराज सभी जन्तुओं को देखकर पुछता है -- 
 सिंहः   -- ( गुस्से से गरजते हुए)  अहो! मैं वनराज हूँ क्या तुम्हें डर नहीं लगता है? क्यों तुम सब मिल कर मुझे इस तरह तंग करते हो? 
एकः वानरः -- क्योंकि तुम वनराज  होने के लिए सर्वथा अयोग्य हो। राजा  तो रक्षक होता है परंतु आप तो भक्षक हैं।और अपनी रक्षा करने में भी आप असमर्थ हैं तो हमारी रक्षा कैसे करेंगे?
अन्यः वानरः --  क्या तुम ने पंचतंत्र के उक्ति नहीं सुना है -- 
     श्लोकः  -- जो सर्वदा विशेष रूप से डरे हुए पीड़ित जीवजन्तुओं को दूसरों से रक्षा नहीं करता है वह मनुष्यरूप में यमराज के समान है । इसमें कोई संदेह नहीं। 
काकः -- हाँ तुम ने सत्य कहा -- वास्तव में मैं ही वनराज बनने के लायक हूँ। 
पिंकः --  (मज़ाक  उड़ाते हुए)  तुम कैसे जंगल का राजा बन ने के लायक हो, जहाँ तहाँ का-का इस कटु ध्वनि से वातावरण को व्याकुल करते हो। न रूप है न ध्वनि है। काला रंग युक्त, शुद्ध और अशुद्ध भक्षण करने वाले तुम्हें हम कैसे वनराज मान लें? 
काकः  -- अरे! अरे! क्या बोल रहे हो? यदि मैं काले रंग का हूँ तो तुम क्या गोरे रंग की हो? और भी क्या भूल गए हो कि    मेरी सत्यप्रियता लोगों के लिए उदाहरण जैसी है-- 'झूठ बोलोगे तो कौवा काटेगा'। हमारे परिश्रम और एकता विश्वप्रसिद्ध है और भी कौए की तरह कोशिश करने वाला विद्यार्थी ही आदर्श छात्र माना जाता है। 

पिकः  -  डींगे मारना बन्द करो। क्या यह नहीं सुना कि -

       कौवा और कोयल दोनों काले होते हैं, दोनों में अन्तर कैसा? किन्तु वसन्त ऋतु आने पर कौवा  कौवा होता है और कोयल कोयल होती है।

काकः -- अरे दूसरों के द्वारा पाली गई! यदि मैं तुम्हारे सन्तानों को न पालुं, तो तुम कोयल कहाँ होते? इसलिए मैं ही पक्षिसम्राट कौवा हूँ।

गजः --  (पास आते हुए) अरे! अरे! सभी की वातचित सुनते हुए ही मैं यहाँ आया हूँ। मैं विशाल शरीरवाला, बलवान और पराक्रमी हूँ। चाहे शेर हो या अन्य कोई भी जीव। जंगली पशुओं को तंग करते हुए प्राणी को मैं अपनी शुण्ड से पटक पटक कर मारता हूँ। क्या और कोई भी ऐसा पराक्रमी है। इसलिए मैं ही वनराज पद के लिए योग्य हूँ।

वानरः - अरे! अरे! एसा है (शीघ्र ही हाथी का पुंछ खींचकर पेड़ पर चढ़ जाता है।)

(हाथी उस पेड़ को ही अपनी शुण्ड से उखाड़ना चाहता है किन्तु बंदर भी कूद कर दूसरे पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार हाथी को एक पेड़ से दूसरे पेड़ की ओर दौड़ता देखकर सिंह भी हँसता है और कहता है।)

सिंहः -  अरे हाथी! मुझे भी इन बंदरों ने इस प्रकार तंग किया।

वानरः - इस कारण से ही कहता हूँ की मैं ही वनराजपद के लिए योग्य जिस्से वा जिसके द्वारा विशालकाय ,पराक्रमी और भयंकर होने पर भी सिंह अथवा हाथी को पराजित करने में हमारा जाति समर्थ है। इसलिए वन्यप्राणीओं के रक्षा के लिए हम ही योग्य अथवा सक्षम हैं।

      (यह सव सुनकर नदी से एक बगुला)

बकः  -  अरे! अरे! मुझे छोडकर ओर कोई मी राजा बनने के लिए योग्य या समर्थ है? मैं तो ठंडे पानी में अधिक समय तक बुद्धिमान जैसा(या स्थितप्रज्ञ सदृश) अविचल ध्यानमग्न रहकर सभी के रक्षा के लिए उपायें( तरिकाएँ) सोचुँगा, और योजना बना कर अपनी सभा में विभिन्नपदाधिकारी और  प्राणियों के साथ मिलकर रक्षाउपायों को क्रियान्वित करवाउँगा। इसलिए मैं ही वनराज पद प्राप्त करने के लिए योग्य हूँ।

मयूरः  -   (पेड के ऊपर से - ठहाका मारते हुए) आत्मप्रशंसा से दूर रहो दूर रहो (अथवा अपनी प्रशंसा मत करो) क्या तुम नहीं जानते कि -

      यदि राजा अच्छा  नेेता न हो तो प्रजा नाविकरहित नौका के समान यहाँ समुद्र में डूब जाती है। 

    तुम्हारे ध्यानावस्था को कौन नहीं जानता। स्थिर बुद्धि वाले की तरह स्थिर होकर  छलपूर्वक मछलियों को क्रुरता से खा जाते हो। तुम्हे धिक्कार है। तुम्हारे कारण से तो सम्पूर्ण पक्षियों के कुुल अपमानित हो गया है।

वानरः  - (गर्व सहित) इसलिए कह रहा हूँ कि मैं ही वनराजपद के योग्य हूँ। शीघ्र ही मेरे राज्याभिषेक के लिए सभी वन्यप्राणी तैयार हो जाओ।

मयूरः - अरे बंदर! चुप हो जाओ। तुम वनराज पद के योग्य कैैसे हो? देखो देखो मेरे सिर पर राजमुकुट सदृश शिखा को स्थापित कर विधाता ने मुझे पक्षिराज बना दिया। इसलिए वन में रहनेवाले मुझे वनराज के रूप में भी देखने के लिए वर्तमान तैयार हो जाओ। क्योंकि अन्य कोई भी विधाता के निर्णय(फैसले) को कैसे बदल सकता है।

काकः - (व्यङ्ग के साथ) अरे सर्प को खानेवाले! नृत्य के अतिरिक्त तुम्हारी और क्या विशेषता है कि हम सव तुम्हे वनराज पद के लिए योग्य मानलें?

मयूरः  -  क्योंकि मेरा नृत्य तो प्रकृति की आराधना है। देखो! देखो! मेरे पंखों का अनुपम सौन्दर्य को (पंखों को खोलकर नृत्य की मुद्रा में खडे होकर) तीनों लोकों में मेरे जैसा सुन्दर कोई भी नहीं है। वन्यप्राणियों के ऊपर आक्रमण करने वाले को तो में अपनी सौन्दर्य और नृत्य से आकर्षित कर जंगल से बहिष्कार (बाहर) कर दुंगी। इसलिए मैं ही वनराजपद के लिए योग्य हूँ।

(इसी समय ही बाघ और चिता भी नदी का जल पीने आए और इस विवाद(झगडे) को सुनकर बोलते हैं)

ब्याघ्रचित्रकौ - अरे क्या वनराजपद के लिए सुपात्र का चयन कर रहे हो?

   इस के लिए तो हम दोनों योग्य हैं। जिस किसी का भी सर्वसम्मति से आपसब चयन करो।

सिंहः - अरे चुप हो। तुम दोनों भी मेरे जैसे भक्षक हो रक्षक नहीं। यह जंगल के जीव भक्षक को रक्षक पद के योग्य नहीं मानते। इसलिए विचारविमर्श चल रहा है।

बकः  - शेर महोदय के द्वारा सम्पूर्ण रूप से ठीक कहा गया। वास्तव में शेर के द्वारा बहुत समयतक शासन किया गया। परन्तु अव तो कोई पक्षी ही राजा बनेगा यह निश्चित है। इसमें बिलकुल भी सन्देह की अवकाश(गुंजाइश) नहीं है।

 सभी पक्षी - (ऊँचे स्वर से) कोई पक्षी ही जंगल का राजा बनेगा(लेकिन कोई भी पक्षी अपने अतिरिक्त किसी ओर को इस पद के योग्य नहीं मानता तो निर्णय कैसे हो?) 

तब उन सब के द्वारा गहरी नींद में बेफिक्र  सोये हुए उल्लू को देखकर विचार किया  कि ये अपनी प्रशंसा से रहित पद को चाहने से रहित उल्लू ही हमारा राजा होगा। 
तो राज्याभिषेक से सम्बन्धित सारी सामग्री ले आओ ऐसी आदेश एक दूसरे को दे दिया। 
सभी पक्षी तैयारी के लिए जाना चाहते हैँ तभी अचानक  ही --

काकः  -  (अट्टहासपूर्ण स्वर सेे) - यह सर्वथा अनुचित है कि मयूर-हंस-कोयल-चटवा-तोता-सारस आदि उपस्थित प्रधान पक्षिओं से सभी इस दिवान्ध तथा भयङ्कर मुखवाले का अभिषेक के लिए तैयार(प्रस्तुत) हो रहे हैं। सारा दिन नींद में डुबा हुआ यह  हमको कैसे रक्षा करेगा( बचाएगा)।

 वास्तव में - 

    स्वभाव से क्रोधी, अत्यन्त उग्र, क्रूर, अप्रिय बोलनेवाले उल्लू को राजा बनाकर कौनसा सिद्धि प्राप्त  होगा।

               (तव प्रकृतिमाता प्रवेश करती है)

(स्नेहपूर्वक) हे प्राणियों! तुम सभी ही मेरे बच्चे हो। आपस में क्यों झगडा कर रहे हो। वास्तव में जंगल के सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं। सदैव(हमेशा) स्मरण रखो - 

    प्रदान करता है स्वीकार करता है, रहस्य कहता है पूछता है, खाता और खिलाता है - यह छह प्रकार स्नेह के लक्षण हैं।

      (सभी प्राणी एक स्वर से)

हे माता! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं परन्तु हम सव आपको नहीं जानते हैं। आपका परिचय क्या है?

प्रकृतिमाता - मैं प्रकृति तुम सबके माता  हूँ। तुम सव मेरे प्रिय हो। सवका ही मेरे लिए उचित समय पर महत्त्व है। झगडे से समय को बेकार मत जाने दो और भी तुम सब मिल कर  प्रसन्न हो जाओ एवं जीवन को रसमय बनाओ। जैसे कि कहा गया है - 

       प्रजा के सुख में राजा का सुख होता है और प्रजाओं के हित में राजा का हित है। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजा की प्रियता ही राजा का हित है॥

और भी -

   अत्यधिक जलधारा में संचरण करने वाला रोहित (रोहू) नामक बडी मछली घमंड(गर्व) नहीं करता है। परन्तु अंगुठे के बराबर जल में(अर्थात् थोडे से जल में) छोटी मछली उछलति रहती है।

   इसलिए आपसब भी छोटी मछली के समान परस्पर का गुण का चर्चा(आलोचना ) छोड कर, मिलकर प्रकृति की सौन्दर्य के लिए और वन की रक्षा के लिए प्रयत्न(प्रचेष्टा) कीजीए।

सब प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैैं और मिलकर दृढसंकल्पपूर्वक गाते हैं - 

 आपस(एक दूसरे) में झगडनेसे प्राणियों की हानि (क्षति) होती है। परस्पर के सहयोग से उनका लाभ उत्पन्न होता है॥


 अभ्यासः 


१.    अधोलिखित प्रश्नानामुत्तराणि एकपदेन लिखत -

  क)      

 उत्तरम् -  तुच्छजीवैः 

   ख)

उत्तरम् - काकः 

  ग) 

 उत्तरम् -  आदर्शः 

   घ)

 उत्तरम् - गजः  

ङ)

 उत्तरम् -  वराकान् 

   च)

 उत्तरम् -  पिच्छान् उद्घाट्य 

   छ) 

 उत्तरम् -  उलूकस्य 

   ज)

 उत्तरम् -  दश  

२.  अधोलिखितप्रश्नानामुत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत -  

 क)  

उत्तरम् -      निःसंशयं सिंहः कृतान्तः मन्यते।

ख) 

 उत्तरम् -   बकः वन्यजन्तूूनां रक्षोपायान् शीतले जले बहुकालपर्यन्तं अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा चिन्तयितुं कथयति।

ग) 

 उत्तरम् -  अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथममिदं वदति यत्, भोः प्राणिनः! यूयं सर्वे एव मे सन्ततिः।

घ)  

उत्तरम् -   यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा अकर्णधारा नौः इव जलधौ विप्लवेत्।

३. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत  -

क)  सिंहः वानराभ्यां कस्याम् असमर्थः एव आसीत्?

ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं केन पोथयित्वा मारयति?

ग)  वानरः आत्मानं कस्मै योग्यः मन्यते?

घ)  मयूरस्य नृत्यं कस्याः आराधना?

ङ)  सर्वे काम् प्रणमन्ति?

४.  शुद्धकथनानां समक्षम्   "आम्" अशुद्धकथनानां  च समक्षं "न" इति लिखत  -

   क)  न

   ख)   न

   ग)  आम्

   घ)   न

   ङ)   आम्

   च)   आम्

५. 

  क)   काकः मेध्यामेध्यभक्षकः भवति।

   ख)  पिकः परभृत् अपि कथ्यते।

   ग)  बकः अविचलः स्थितप्रज्ञ इव तिष्ठति।

   घ)   मयूरः अहिभुक् इति नाम्नाऽपि ज्ञायते।

   ङ)   सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते यथासमयम्।

६. 

   क)   गजः

   ख)   काकः

  ग)  मयूरः

   घ)   वानरः

    ङ)   सिंहः

   च)   रोहितः

    छ)   प्रकृतिमाता

   ज)    उलूकः

७.

  क)  त्वं सत्यं अकथयः।

   ख)   सिंहेन सर्वजन्तवः पृष्टाः।

   ग)    काकेन पिकस्य सन्ततिः पालयते।

घ)   मयूरं विधाता एव पक्षिराजं वनराजं वा कृतवान्।

ङ)   सर्वे खगाः कमपि खगं वनराजं कर्तुमिच्छन्ति स्म।

च)   सर्वैः मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नः कर्तव्यः।

८.   क)   तुच्छजीवैः -  तुच्छैः जीवैः।
       ख)   वृक्षोपरि    -  वृक्षस्य उपरि। 
       ग)    पक्षीणां सम्राट्  -  पक्षिसम्राट्। 
       घ)    स्थिता प्रज्ञा यस्य सः  -  स्थितप्रज्ञः।
       ङ)    अपूर्वम्  -  न पूर्वम् ।
       च)    व्याघ्रचित्रका -  व्याघ्रः च चित्रकः च।
९. 
क)    क्रुध् + क्त  -  क्रुद्धः 
ख)  आकृष्य  -   आ + कृष् + ल्यप् 
ग)   सत्यप्रियता -  सत्यप्रिय + तल्  +टाप् 
घ)   पराक्रमी -  पराक्रम + णिनि
ङ)   कूर्द् + क्तवा   -   कूर्दित्वा
च)  श्रृण्वन् -  श्रृ + शतृन् 

सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)

 अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य बर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥(महर्षि मनुः)  अर्थ  -               प्रतिदिन नियमितरूपसे गुरु...