Wednesday, July 31, 2024

सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)



 अत्यम्वुपानान्न विपच्यतेऽन्न

मनम्वुपानाच्च स एव दोषः।

तस्मान्नरो वन्हिविवर्धनार्थं

मुहुर्मुहुुर्वारि पिवेदभूरि॥


अर्थात् - 

          अधिक जल पिने से भोजन नहीं पचता है। पानी बिलकुल न पीने पर भी वही दोष होता है। इसलिए व्यक्ति भोजन पचाने के क्षमता की(/उदराग्नि के) वृद्धि के लिए बार बार थोडा थोडा पानी पीना चाहीये।

Meaning   -

          By drinking more water food does not get digested. Similar situation arises when you don't drink water . So one should drink water little by little every now and then to improve the digestive capacity.


Tuesday, July 30, 2024

सुभाषितम् (NOBLE THOUGHTS)



पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।

प्रायेण हि सुवृतानामस्थायिन्यो विपत्तयः॥

अर्थात् - 

                    भूमिस्थ होने पर भी हाथ के आघात से गेन्द पुनः उपर उठ जाता है। उसी प्रकार उत्तम चरित्रवान् व्यक्तियों के विपत्तियां प्रायशः अस्थायी होते हैं॥

Meaning -

        As being on the ground, the ball goes up again by the striking of hands.  Similarly adversities/misfortunes of the well-behaved/virtuous persons are mostly not long lasting. 





Thursday, July 18, 2024

सुभाषितम् (NOBLE THOUGHTS)



*            किमत्र चित्रं यत् सन्तः परानुग्रह तत्पराः।                                                                                                                         न ही स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥

अर्थात्  -

          सज्जन व्यक्ति दुसरों को दया दिखाने ने के लिए(अथवा अनुग्रह करने के लिए) सर्वदा तत्पर(प्रस्तुत) रहते हैं, इसमें आश्चर्य क्या है! चन्दन वृक्ष अपने शरीर(स्वयं)को ही शीतल(ठंडा)करने के लिए उत्पन्न नहीं होते हैं॥

 Meaning -

         Learned persons always eager/ready to be kind to others, what is surprising in this! All the sandalwood trees are not produced / generated to cold themselves.

सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)



 *    दिनान्ते च पिवेत् दुग्धं निशान्ते च पिवेत् पयः।

           भोजनान्ते पिवेत्तक्रं किं वैद्येन प्रयोजनम्॥

अर्थात्  - 

 दिन के अन्त(रात) में दुध पीना चाहीए, रात्रि के अवसान(सुबह) में पानी पीना चाहीए और भोजन के बाद छाछ पीना चाहीए। एसे करने से व्यक्ति का वैद्य का आवश्यक नहीं होता है।

Wednesday, July 17, 2024

सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)

                                                               


यो यत्र कुशलः कार्ये तं तत्र विनियोजयेत्।

कर्मस्वदृष्टकर्मा यः शास्त्रज्ञोऽपि विमुह्यति॥

अर्थात् - 

               जो जिस कार्य में प्रवीण/ निपुण है, उसको उसी कार्य में नियुक्त करना चाहीए। कर्त्तव्य कार्य में जो अनुभवी नहीं है, शास्त्र पढकर ज्ञानी होने पर भी उसको उस कार्य में नियुक्त नहीं करना चाहीए। 

Meaning -

                A skilled person in a particular activity, should be engaged in that work only. Inexperienced person in any activity should not be engaged in that work, being knowledgeous/wise by reading books.

Tuesday, July 16, 2024

अन्ताक्षरी - भाग २ (ANTAKSHARI PART -II ) PRAYERS

                                                     


*   रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।

अमृतः शाश्वतस्थाणुर्वरारोहो महातपाः॥

*   पद्मासनस्थिते देवि परंब्रम्ह परायणी।

परमेष्ठी जगत्मात महालक्ष्मी नमोऽस्तु ते॥

*   तमेकमद्भूूतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुम्।

जगद्गुरुं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलम्॥

*   लक्ष्मीं क्षीरसमुद्रराजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीं,

दासीभूत समस्तदेववनितां लोकैैकदीपाङ्कुराम्।

श्रीमन्मन्द कटाक्ष लब्ध विभव ब्रम्हेन्द्र गङ्गाधरां,

त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥

*   यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परश्शतम्।

विघ्नं निघ्नन्ति सततं विश्वक्सेनं तमाश्रये॥

*   या कुन्देन्दु तुषारहारधवला, या शुभ्रवस्त्रावृता;

या वीणावरदण्ड मण्डितकरा, या श्वेतपद्मासना।

या ब्रम्हाच्युत शङ्करप्रभृतिभिः, देवैः सदा पूजिता;

सा मां पातु सरस्वती भगवती, निःशेष जाड्यापहा॥

*   हे गोपालक हे कृपाजलनिधे हे सिन्धुकन्यापते;

हे कंसान्तक हे गजेन्द्रकरुणापारीण हे माधव।

हे रामानुज हे जगत्त्रयगुरो हे पुण्डरीकाक्ष मां;

हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना॥

*   नमस्ते नमस्ते महादेव शम्भो, नमस्ते नमस्ते प्रसन्नैकबन्धो।

नमस्ते नमस्ते दयासारसिन्धो, नमस्ते नमस्ते नमस्ते महेश॥

*   श्वेतपद्मासना देवि श्वेतपुष्पा शोभिता।

श्वेताम्वराधरा नित्या श्वेतगन्धानुलेपना।

*   नमस्ते हस्तिशैलेश श्रीमन्नम्बुजलोचन।

शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि प्रणतार्तिहराच्युत॥

Saturday, July 13, 2024

अव्ययम्(INDECLINABLE)

                                                      


                      सदृशं त्रिषु लिंगेषु सर्वाषु च विभक्तिषु।

                                       वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम्॥

अर्थात्  -

  तीनों लिंगो में और सभी विभक्तियों में जो समान रहता है तथा सभी वचनों में जिसका कुछ नष्ट नहीं होता है, वो अव्यय है।

अव्ययाः बहुधा सन्ति।यथा -

१.  तु   -  वाक्यस्य आदौ कदापि नागच्छति, साधारणतः प्रथमशब्दात् परमेव व्यवहृतम्। 

              अर्थः  -  उल्टे, इसके विपरीत, फिर भी

       उदाहरणम् -

                  भीमस्तु पांडवानां रौद्रः।

२.   मनाक्  -  थोडा, कम्, स्वल्प 

                 न मनाक्  

                 रे धावकाः! धावनप्रतिस्पर्धायां विपथगामी न मनागपि स्युः । 

३.   तदा,तदानीं  -  बाद में, उस समय

४.   युगपद्  - एक ही समय पर, एक साथ, समकालिक

 ५.   येन  -  जिसके द्वारा

 ६.  यत्र  -  जहां पर, जिस स्थान पर

 ७.  यथा  -  जैसे

 ८.  यथावत्  -  यथाविधि, उचित रूप से / ठीक् से,

९.  यदा  -  जब, उस समय जब

१०.  यदृच्छातस्  -  अकस्मात्, संयोगवश

११.  यर्हि  -  जब, जब तक, जब कभी भी

१२.  ततः  -  उस व्यक्ति या स्थान से

 १३.  अपि     -          संस्कृत में वाक्य में पहले 'अपि' लगाने से वाक्य प्रश्नवाचक हो जाता है।

 उदाहरण - 

    अपि चलच्चित्रं पश्यामः? (क्या हम चलच्चित्र देखें?)




                          



Friday, July 12, 2024

छात्रजीवनम्/ विद्यार्थीजीवनम् (निबन्धः) ESSAY


                

                    छात्रस्य जीवनम् इति छात्रजीवनम्। छात्रजीवनं अतीव कोमलं चपलम् च। परन्तु अस्मिन् समये छात्राणामुपरि गुरुदायित्वं न्यस्तः भवति।  विद्यालयः महाविद्यालयः विश्वविद्यालयश्च  छात्राणां अंगत्वेन वर्तन्ते अपि च तेषां अवदानेन एव शोभन्ते। छात्रशिक्षकान् परिगृह्य एव विद्यालयः चलति। छात्राणां चरित्रगठनाय देशस्य भविष्यतनिर्मातुं तेषामध्ययनस्य आवश्यकतामस्ति। सुशिक्षितान् नागरिकान् प्राप्य देशः समृद्धः भवति। यस्य देशस्य नागरिकाः उन्नताः स देशः तथा समुन्नतः।  अतः देशगठनाय छात्राणां उन्नतिः वैशिष्टं विषये च यथार्थेन विचारणीयः। छात्राः देशस्य मूलपिण्डाः। महात्मना मदनमोहन मालव्येन विरचितोऽयं श्लोकः  -                                                       सत्येन ब्रह्मचर्येण व्यायामेनाथ  विद्यया।                                                                                                                देशभक्त्याऽऽत्मत्यागेन सम्मानार्हः सदा भव॥                                                 अर्थात् - 

           सत्येन, इन्द्रियसंयमेन(ब्रम्हचर्येण), शारीरिकश्रमेण(व्यायामेन), शिक्षया, देशप्रेमद्वारा, स्वार्थत्यागेन च त्वं सर्वदा सम्मानस्य योग्यः भव।


   गुरोरुपदेशान् छादयति आछादयति वा इति छात्रः। अतः छात्रः गुरोः सदुपदेशं गृह्णीयात्। पुनश्च छात्रशव्दस्य प्रतिशव्दः वर्तते शिष्यः। शास्यते इति शिष्यः। अतः छात्राः गुरुभिः उपदिष्टाः उपदिश्यन्ते वा। अपरं प्रतिशव्दं भवति विद्यार्थी । विद्यां ज्ञानं वा अर्थयति इति विद्यार्थी। अतः शिष्याः गुरुभ्यो सद्ज्ञानं आहरणं कुर्युः। परन्तु संप्रति छात्राः विद्याविमुखाः भूत्वा अन्यविषये अन्य विषये अधिकं गुरुत्वं ददति। अध्ययनं ही छात्राणां प्रमुखं कर्मम्। अतः यथार्थोक्तं - छात्राणां अध्ययनं तपः। विद्योपार्जनं,शिक्षाग्रहणं, चरित्रोन्नतिः, शारीरिक  मानसिक आत्मिक नैतिक बलाधानम् हृष्टत्वंपृष्टत्वं च सद्गुणमेव विद्याध्ययनकारीषु समभीष्यते। 
   प्राचीनकाले भारतीयानां जीवनस्य चत्वारःभागः आसन्। यथा - १  व्रम्हचर्याश्रमः २. गार्हस्थ्याश्रमः ३. वानप्रस्थाश्रमः  ४. सन्यासाश्रमः
 एतेषु जीवनस्य प्रथमो भागः व्रम्हचर्याश्रमः। व्रम्हचर्यसमयः एव अध्ययनकालः अस्ति। अस्मिन् समये सर्वे विद्याध्ययनं कुर्वन्ति। फलेन जीवनं समुत्कर्षं भवति। आत्मशान्तिः लभते। मनः सुस्थं भवति। इन्द्रियाण्यपि प्रफुल्लितानि। जीवनस्य सर्वोन्नतिः साधितमस्ति।

   व्रम्हचारीजीवनं नूनमेव वहुमूल्यं उच्चतरम् च। एतस्मिन् समये छात्राः गुरुकुलाश्रमे विद्यालये वा कठोरनियमेन निबद्धासन् तिष्ठन्ति। तत्र अध्ययनेन समं कायिक शिक्षामपि लभते।तेषु नियमेषु समयानुवर्त्ती अन्यतमा।  परवर्त्तीसमये एतानि नियमानि देशस्य, विश्वस्य, प्रकृत्याश्च समुन्नतिसाधयितुं तान्  महदुपादानम् प्रददति। अध्ययनात् हि तेषां चरिताः उन्नततराः भवन्ति।   एतदर्थं उक्तं यत् -

                                   अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

                                                      उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

अर्थात्  -

           अयं मम स्वकीयः अथवा परकीयः इति विचारः(गणना) नीचमनसां जनानाम् भवति। किन्तु प्रशस्तमनसां जनानां केवलम् पृथिवी परिवारः अस्ति।

 (छात्रारेव देशस्य संचालनाय विकाशाय  च समर्थाः।) 

  छात्राः प्रवाहिता नदीरिव। अतः तान् समुचितगुरोरुपदेशम् दद्यात्। उक्तमेव, -

                       अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

                                        चत्वारि तस्य बर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥

अर्थात्  -

नियमितरूपेण गुरुजनान् प्रणमतः प्रतिदिनं च वयस्कज्ञानिजनानां सेवां कुर्वतः जनस्य आयुष्यम्  ज्ञानम् कीर्त्तिः शक्तिः  - एतानि चतुर्विधानि वृद्धिं लभन्ते। 

विद्यार्थिनः प्रचेष्टावन्ताः प्रयासरताः वा भवेयुः। यथा -

                         उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

                                          न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥ 

अर्थात्  - 

             उत्तम प्रयासेेन हि कार्याणि सिद्धिर्भवन्ति, न मनोरथैः। यथा जन्तवः सुप्तस्य सिंहस्य मुखाभ्यन्तरे न प्रविशन्ति।

 कविना श्रीसोमदेवेन विरचिते कथासरित्सागरग्रन्थे छात्रानुद्दिश्य रचितम् यत् -

                             परिधानैरलङ्कारैर्भूषितोऽपि न शोभते।
                                    नरो निर्मणिभोगीव सभायां यदि वा गृहे॥
अर्थात् -
वस्त्रैः आभूषणैश्च सुशोभितोऽपि विद्याहीनः मनुष्यः गृहे अथवा सभायां न सुशोभते। यथा मणिविहीनः सर्पः न शोभते।
 विद्याध्ययनकारी छात्राः विनयी भवेयुः। विनयः संभाव्यते अध्ययनात्। विद्वद्भिः उक्तं यत्  -

        " विद्या ददाति विनयं विनयात्  याति पात्रताम्।
                   पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मः ततः सुखम्।"
अर्थात्  - 
             विद्यया शिक्षया वा छात्रः विनयी भवति, विनम्रतायाः योग्यता उत्पद्यते। योग्यतायाः धनं समृद्धिश्च लभते। समृद्धेः सदाचारं प्राप्नोति। तत्पश्चात् सदाचारेण एव सुखं प्राप्नोति।
      स्वामी विवेकानन्दः,लाल बहादूर शास्त्री, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस , बाल गङ्गाधर तिलक, वैज्ञानिकेषु      डॉक्टरः ए पि जे अब्दुल् कलाम् आदयः छात्रजीवने कठोर परिश्रमः कृत्वा एव देशस्य महानुभावाः भवन्ति स्म

 छात्राः विद्यार्थिनः वा विद्यां प्रति श्रद्धावन्ताः भवेयुः। श्रीमद्भगवद्गीतायां भगवता श्रीकृष्णेन उक्तम्  -

                   "श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्  तत्परः  संयतेन्द्रियः।

                             ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥"

                                                  

                                                                समाप्तम्

Tuesday, July 9, 2024

SHREEMAD BHAGAVAD GEETA CHAPTER -1 PART - 2

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ 17 ॥

  kāśyaścha paramēṣvāsaḥ śikhaṇḍī cha mahārathaḥ ।

dhṛṣṭadyumnō virāṭaścha sātyakiśchāparājitaḥ ॥ 17 ॥

Meaning - Great archer the king of Kashi, warrior Shikhandee, Dhristadyumna, Virata and unconquered/undefeated Satyaki - all sounded their conches.

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ 18 ॥

drupadō draupadēyāścha sarvaśaḥ pṛthivīpatē ।

saubhadraścha mahābāhuḥ śaṅkhāndadhmuḥ pṛthakpṛthak ॥ 18 ॥

Meaning - O king! Drupada the king of Panchal, sons of Draupadi and the son of Subhadra etc. all sounded their own conches.

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ 19 ॥

 sa ghōṣō dhārtarāṣṭrāṇāṃ hṛdayāni vyadārayat ।

nabhaścha pṛthivīṃ chaiva tumulō vyanunādayan ॥ 19 ॥

Meaning - That loud sound became noisy/tumultuous which splitted the hearts of the sons of Dhritarashtra by sounding the earth and the sky.

 अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ 20 ॥

atha vyavasthitāndṛṣṭvā dhārtarāṣṭrānkapidhvajaḥ ।
pravṛttē śastrasampātē dhanurudyamya pāṇḍavaḥ ॥ 20 ॥

Meaning - Thereafter seeing the sons of Dhritarastra being arranged/organised/systematic,  Arjun, the son of Pandu who seated on the chariot attached with the flag marked out of the picture of Hanuman,  determined to flight the arrow  by lifting up the bow.

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ 21 ॥

hṛṣīkēśaṃ tadā vākyamidamāha mahīpatē।

arjuna uvācha ।

sēnayōrubhayōrmadhyē rathaṃ sthāpaya mē'chyuta ॥ 21 ॥

Meaning - Arjun said, --

                  O king! Arjun said these words to Lord Srikrishna, O Imperishable! Kindly put my chariot in between the soldiers of both sides.

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥ 22 ॥

yāvadētānnirīkṣē'haṃ yōddhukāmānavasthitān ।

kairmayā saha yōddhavyamasminraṇasamudyamē ॥ 22 ॥

Meaning  - I'll see all of them who present here with the desire of fighting and also in this great examination of weapons with whom I have to fight.

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ 23 ॥

yōtsyamānānavēkṣē'haṃ ya ētē'tra samāgatāḥ ।

dhārtarāṣṭrasya durbuddhēryuddhē priyachikīrṣavaḥ ॥ 23 ॥ 

Meaning - Let me see them who gathered here to fight with a desire to please Duryodhana, the stupid son of Dhritarastra.

सञ्जय उवाच ।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ 24 ॥

sañjaya uvācha ।

ēvamuktō hṛṣīkēśō guḍākēśēna bhārata ।
sēnayōrubhayōrmadhyē sthāpayitvā rathōttamam ॥ 24 ॥

Meaning - Sanjay said,

O Bharatvanshi! Lord Krishna took that excellent charriot and put it in between the soldiers of both sides, because of what Arjun said.

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ 25 ॥

bhīṣmadrōṇapramukhataḥ sarvēṣāṃ cha mahīkṣitām ।

uvācha pārtha paśyaitānsamavētānkurūniti ॥ 25 

Meaning  - Infront of Bheesma, Drona and also all other kings of the whole world, Lord Shrikrishna said: O parth! see all the Kauravas being gathered here.

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ 26 ॥

tatrāpaśyatsthitānpārthaḥ pitṝnatha pitāmahān ।
āchāryānmātulānbhrātṝnputrānpautrānsakhīṃstathā ॥ 26 ॥

Meaning- Arjun saw his paternal uncles, great grand-fathers, preceptors, maternal uncles,  brothers, sons, grandsons,father-in-laws, relatives and also friends of the soldiers of both sides, who stood there. ( 26 & 27 )

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥ 27 ॥

śvaśurānsuhṛdaśchaiva sēnayōrubhayōrapi ।
tānsamīkṣya sa kauntēyaḥ sarvānbandhūnavasthitān ॥ 27 ॥

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अर्जुन उवाच ।

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ 28 ॥

kṛpayā parayāviṣṭō viṣīdannidamabravīt।

arjuna uvācha ।

dṛṣṭvēmaṃ svajanaṃ kṛṣṇa yuyutsuṃ samupasthitam ॥ 28 ॥

Meaning  - Seeing all those relatives who remained there, Arjun the son of Kunti being more compassionate and with sorrow said this -

                                 ARJUN TOLD:

O Krishna! Seeing these relatives being gathered here (in front of me) with a desire to fight;  (27 & 28) 

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ 29 ॥

sīdanti mama gātrāṇi mukhaṃ cha pariśuṣyati ।
vēpathuścha śarīrē mē rōmaharṣaścha jāyatē ॥ 29 ॥

Meaning  - My body parts are lacking in rigor and mouth is drying. My whole body is shivering and I have got goosebumps.(29)


गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ 30 ॥

gāṇḍīvaṃ sraṃsatē hastāttvakchaiva paridahyatē ।
na cha śaknōmyavasthātuṃ bhramatīva cha mē manaḥ ॥ 30 ॥

Meaning  - My famous Gandeev (bow and arrow) is falling from my hand and also my skin is burning. I am not even capable to stand here and my mind is wandering about.(30)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ 31 ॥

 nimittāni cha paśyāmi viparītāni kēśava ।

na cha śrēyō'nupaśyāmi hatvā svajanamāhavē ॥ 31 ॥

Meaning - O Keshav! I am seeing the causes of opposite things and also not seeing welfare by killing our own relatives in the war.


न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ 32 ॥

na kāṅkṣē vijayaṃ kṛṣṇa na cha rājyaṃ sukhāni cha ।

kiṃ nō rājyēna gōvinda kiṃ bhōgairjīvitēna vā ॥ 32 ॥

Meaning - O Krishna!  I want neither victory nor kingdom and happiness . O Govinda! What is beneficial to us by kingdom, enjoyment or being alive. 







Monday, July 8, 2024

सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)



यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम्।

नहि कस्तूरिकामोदः शपथेन निवार्यते॥

अनुवादः  -

    यदि व्यक्ति का गुण हैं वो स्वतः(अपने आप) प्रकटित होते हैं। उसको कोई रोक नहीं पाएगा। जैसे कस्तूरी का सुगन्ध किसी भी प्रकार के वचन(श्राप, वचन) से निवारण नहीं कर सकते हैं॥

Meaning  -  If people have qualities, they becoming visible/shining forth automatically. No one can stop for this. Like the fragrance of musk can not be prevented by any type of oath/curse. 


सुभाषितम्(NOBLE THOUGHTS)

 अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य बर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥(महर्षि मनुः)  अर्थ  -               प्रतिदिन नियमितरूपसे गुरु...